पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२६१

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अतिथिसत्कार-अतिदेश २५५ मना है। इसके निम्नलिखित पांच अतिचार हैं,- अतिदूर (सं० त्रि.) बहुत दूर। १ सचित्तनिक्षेप, २ सचित्तपोहण, ३ कालातिचार, अतिदेव (सं.पु.) अतिक्रान्तो देवान्। सब ४ परव्यपदेश, मत्सर, ५ अन्योपदेश । देवतासोंसे श्रेष्ठ,-१ रुद्र, शिव, महादेव ; २ विष्णु, अतिथिसत्कार ( स० पु०) अतिथिका आदर। नारायण। अतिथिसेवा (सं० स्त्री०) मिहमानदारी। अतिदेश (सं० पु०) अतिदिश्यते असो अनेन वा, अतिदग्ध (सं० त्रि.) १ बहुत जला हुआ। खविषयमतिक्रम्य उल्लय अन्यत्र देशः उपदेशः । (लो०) २ अग्निदग्ध रोग दूसरे धर्मका दूसरी जगह आरोप,- अतिदत्त (सं० पु०) दत्तके भाई और राजाधिदेवके "अन्य व प्रणीताबा: तत्स्नाया धर्मसंहतेः । लड़के। अन्धव कार्यतः प्राप्तिरतिर्दशः स उच्यते ॥" अतिदर्शिन् (सं० त्रि.) बहुत देखनेवाला, एक जगहके प्रणोत धर्मको कार्य द्वारा जिसमें दूरन्देश। दूसरी जगह प्राप्ति होती, वह अतिदेश कहाता अतिदाट (सं० पु.) बहुत ही उदार मनुष्य । जैसे,-'अक्षय्योदकदानन्तु अयंदानवदिष्यते।' बाडमें 'अतिदान (सं० पु०) अतिशयितं दानं। अपरि पिण्डदानके बाद घी, शहद और तिलसे मिला हुआ मित दान। जो जल देना पड़ता, उसका नाम अक्षय्योदक दान अतिदारुण (सं.वि.) बहुत भयानक । है। जितरह अर्घ्यदान किया जाता है, उसी तरह अतिदाह (सं० पु०) बड़ी जलन । अक्षययोदक दान भी करना चाहिये। अर्थात् पार्वण- अतिदिष्ट (स. त्रि.) अतिदेशविशिष्ट, जहां श्राइमें पित्रादि छः पुरुषोंको जैसे छः अर्य अलग-अलग दूसरे धर्मका आरोप किया गया हो। यथा,- दिये जाते हैं, अक्षय्योदक भी वैसे ही अलग-अलग 'अमायां पिलभ्यो दद्यात् ।' अमावस्याको पितरोंका श्राद्ध देना चाहिये। पावण-वाइमें अनदान प्रभृति कई इस जगह अमावस्यासे भिन्न दूसरे श्राद्ध कार्य अलग-अलग न कर एकपात्र ओर एकवाक्य अतिदिष्ट हुए। द्वारा ही उत्सर्ग करने को विधि है, इसोसे अयंदान- अतिदीप्ति (सं० स्त्री०) १ अधिक प्रकाश । २ सफेद की तरह अक्षय्योदकदानके पृथक् दान-रूप धर्मका तुलसी। अतिदेश होता है। सिवा इसके, 'मातामहानामप्येवं बाई अतिदीप्य (सं० पु.) अतिशयेन दीप्यते । रक्त कुथ्यादिचक्षणः ॥" विचक्षण व्यक्ति मातामहादियोंका चित्रक, लाल चिता, भभकती हुई चिता। श्राद्ध भी पित्रादि बाइके सदृश करे। इस जगह चिता देखी। मातामहादियोंका श्राइ पित्रादि-श्राद्धके सदृश बताये अतिदीर्घ (सं० त्रिः) बहुत लम्बा । जानसे अतिदेशिक कार्य हो गया। तन्त्ररत्नाकरकती अतिदुःखित (सं० त्रि०) बहुत दुःखी। लिखते हैं, जिस शास्त्र द्वारा पूर्वोक्त रूपसे अतिदुर्गत (स' त्रि०) बड़ी बुरी दशामें । धर्मका अतिदेश बताया जाये, उसे भी अतिदेश अतिदुर्धर्ष (सं० त्रि.) १ बड़ी कठिनतासे प्राप्त । कहते हैं। यथा-"प्रकृतात् मर्मणो यस्मात्तत् समानेषु कर्मषु । २ बहुत बदमिजाज, तीव्र स्वभाव। धम्मोऽतिदिश्यते येन सोऽतिदेश इति स्म तेः ।" 'प्रततिवदिकतिः कर्तव्या।' अतिदुर्लभ (सं० त्रि०) कठिनतासे प्राप्तव्य। विकृतिकार्य प्रकृतिको तरह करना पड़ता है। अतिदुष्कर (सं० त्रि०) बहुत कठिन। अमावस्याका श्राद्ध प्रकृत है, सिवा इसके दूसरे सभी अतिदुष्ट (सं० पु०) बहुत बुरा-गोखुरू। श्राद्ध विकत हैं। इस जगह प्रकृतिवत् इस शास्त्र अतिदुःसह (स. त्रि.) बहुत कष्टसे सहा जाने द्वारा दूसरी जगह इसका धर्म अतिदिष्ट होनेसे यह वाला। शास्त्र भी अतिदेश हुआ। अतिदेश पांच तरहका करे।