पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२६७

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अतिराव-अतिरोग साध्य याग-विशेष ; वह यज्ञ, जो एक ही रात्रि में से, मध्यमपयाय द्वारा मध्यरात्रिसे, एवं शेष पर्याय किया जाये। द्वारा शेष रात्रिसे असुरोंका निराकरण हुआ। आश्वलायन-श्रौत-सूत्रमें लिखा है :- ऐतरेय ब्राह्मण ४र्थ पञ्जिकान्तर्गत १६यं और १७३ अध्यायमें अतिराव- “अग्निष्टोमोऽत्यग्निष्टोम उक्थ्यः षोड़शी वाजपेयोऽतिरावाऽतोयाम का विस्त त विवरण ट्रष्टव्य है।। इति संस्थाः । (६।११।१) विष्णुपुराणमें लिखा है, कि अतिरात्र याग ब्रह्माके अर्थात् अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोड़शी, मुखसे उत्पन्न हुआ था। यथा- वाजपेय, अतिरात्र और अप्तोर्याम यह सात संस्था "सामानि जगतीच्छन्दः स्तोमं सप्तदश' तथा । वैरूपमतिरावञ्च पश्चिमादसृजन् मुखात् ॥” (११५५४१) होती हैं। उक्त श्रौतसूत्रवाले भाष्यकारके मतसे- “म सोमयागाः संख्यया मानविधा एवेत्यर्थः ।' अर्थात् सकल सामवेद, जगतीच्छन्द, सप्तदशस्तोम नामक सोमयाग उपरि उक्त सात सस्थामें ही विभक्त हैं। सामगान, वैरूप नामक सामगान और अतिरात्र याग फलतः 'अतिरात्र' सोमयागको ही एक संस्था है। ब्रह्माके पश्चिम मुखसे उत्पन्न हुए थे। तैत्तिरीय-संहितामें लिखा है :- २ चाक्षुस मनुका एक पुत्र । अतिरि ( स० क्लो०) अतिक्रान्तं रायम् । धनातिक्रान्त "एतहा अनिष्टोम प्रथममपयन्तायोकच्चनव पीड़शि- नमथातिरावमनुपूर्वम् ।” (७।४ । १० 16 कुलादि, वह कुल या वंश, जिसके पास बेशुमार ऐतरेय-ब्राह्मणमें लिखा है:- रुपया-पैसा भरा हो। 'एक समय देवताओंने दिवस (दिन) और अतिरिक्त (स त्रि०) १ अधिक, अतिशयित । २ श्रेष्ठ। असुरोंने रात्रिका आश्चय किया था। वे दोनों समान ३ शून्य। ४ भिन्न, सिवा। (लो०) ५ आधिक्य, शक्ति रखते थे, इम लिये कोई किसीको पराभूत न अतिशय, ज़ियादतो। अतिरिक्तकम्बला (सं. स्त्री. ) जैनियोंको सिद्ध- कर सकता था।' 'इन्द्रने देवताओंसे कहा, कि कौन हमारे साथ शिलाके उत्तर तीर्थङ्करके बैठनेका सिंहासन । मिलकर इन असुरीको रात्रिसे दूर भगानेमें सहायता अतिरीयस् (स० क्लो०) उच्च मूल्य, ऊंचा दाम। करेगा। किन्तु इन्द्रने देवताओं में से किसीको ऐसा अतिरुच् (सं० पु०) १ स्त्रीका उरुदेश । २ जानुदेश । न पाया, जो उनकी सहायता करता, क्योंकि वह (त्रि.) ३ अतिशय कान्तियुक्त, बहुत चमकौला। अतिरुचिर (सं० त्रि०) बहुत सुन्दर, निहायत उम्दा। लोग रात्रिके अन्धकारसे मृत्यु के समान डरते थे। इसीलिये आजकल भी लोग रातको घरसे बाहर अतिरुष् (स० त्रि.) बहुत क्रुद्ध, निहायत गुस्मावर । निकलते डरते हैं, रात्रिका अन्धकार उन्हें मृत्युके अतिरुहा (सं० स्त्री०) मांसरोहिणी, सुगन्ध द्रव्य-विशेष। अतिरूक्ष (सं० त्रि.) अतिशयितः रूक्षः। १ अत्यन्त समान ही भयानक मालूम होता है।' 'केवल छन्दोंने ही इन्द्रका साथ दिया। इसी रूक्ष, बहुत रूखा। स्नेहशून्य, निर्मोहो। लिये अतिरात्र यज्ञमें रात्रि कर्मका निर्वाह इन्द्र और अतिरूप (स• पु० ) अतिक्रान्तो रूपम् । १ रूपहीन, छन्दोंसे ही चलता है, अन्य 'निवित्' वा 'पुरोरुक' ईखर, जिसका कोई रूप नहीं। २ सुन्दररूप, आदि देवताओंके उद्देश्यसे शास्त्र पठित नहीं होता। अच्छी सूरत। (त्रि.) ३ शुक्लादि गुणहीन ; जैसे केवल इन्द्र ही छन्दोगणके साथ रात्रिकर्मका निर्वाह वायु प्रभृति, विना रूप-रङ्गका। करते हैं। अतिरेक (स० पु०) अतिशय, भेद, प्राधान्य, आधिक्य, कसरत। 'अतिरात्र यज्ञमें विहित सकल पर्याय (परि- क्रमण ) द्वारा ही इन्द्र और छन्दोगणने असुरोंका अतिरोग ( स० पु.) १ क्षयरोग, सूखा, छई। निराकरण किया था। प्रथम पर्याय द्वारा पूर्वरात्रि (त्रि.)२ अत्यन्त रोगयुक्त, बहुत बीमार। %3B