पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२७२

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अतिशक्र—अतिशयोक्ति प्रकृत विषय निर्देश किया या न किया जाय, अधःकरण अर्थात् अप्राधान्य समझ पड़नेसे ही उस विषयका निगरण करना होता है। अतिशयोक्ति अलङ्कार पांच प्रकारका है- १ दो विषयों में भेद रहते भी अभेदकल्पना। २ अभेदविषयों में भेदकल्पना । ३ सम्बन्ध होते भी असम्बन्ध कल्पना। ४ असम्बन्धमें सम्बन्धकल्पना। ५ कार्य और हेतुके पौर्वापर्यका अभाव अर्थात् विपर्यय। अतिशक (सं० त्रि.) इन्द्रसे बड़ा । अतिशङ्का (सं० स्त्री०) अत्यन्त भय, अजहद, खौफ़। अतिशय (स• पु०) अति-शोङ्-अच् । १ आधिक्य, अतिरेक, बहुतायत, ज़ियादतौ। वेगातिशय जैसे रूपोंमें अतिशय शब्द विशेष्य और अतिशयसाधु जैसे स्थलोंमें विशेषण होता है। २ काव्यालङ्कार-विशेष, जिसमें किसो वस्तुका होना या न होना लगातार दिखाया जाता है। (त्रि.) ३ बहुत ज्यादा, अधिकसे अधिक। अतिक्रान्तः शयं हस्तम् । ४ हस्ताति- क्रमकारक। अतिक्रम्य शक्ति (अव्य०)। ५ शक्त्यतिक्रम । भर, अतिवेल, भृश, अत्यर्थ, अतिमात्र, उद्गाढ़, निर्भर, तीव्र, एकान्त, नितान्त, गाढ़, वाढ़, दृढ़, अतिमर्याद, उत्कर्ष, बलवत्, सुष्छु, किमुत, सु, अतीव, अति, हार, व्यापार, समधिक, अतिरिक्त- यह पर्याय हैं। अतिशयन (सं० क्लो०) अति शौङ्-भावे ल्युट् । १ बहुत सोना। २ अतिरेक, अतिशय, कसरत । (त्रि०) ३ अतिशययुक्त, ज़ियादतोका। अतिशयोक्ति (सं० सी०) अतिशयेन उक्तिः निहे शो- ऽस्मिन् वर्णने । १ जो बात बहुत बढ़ाकर कही जाय । २ काव्यालङ्कार-विशेष, एक प्रकारका अलङ्कार। साहित्य-दर्पण-प्रणेताने अतिशयोक्ति अलङ्कारका इसतरह लक्षण बताया है- "सिद्धत्वे ऽध्यवसायस्वातिशयोक्तिनिंगद्यते।" प्रकृत विषयका अप्राधान्य दिखाके उसके उद्देश्यमें अप्रकृत विषयको निश्चल भावसे स्थापन करनेपर अतिशयोक्ति होतो है। यथा, मुखं द्वितीयश्चन्द्रः । मुख तो दूसरा चन्द्र है। इस स्थानमें प्रकृत विषय मुख है, किन्तु मुखको चन्द्र बताके उल्लेख किया गया है। इसीसे ऐसे स्थलमें एकका प्राधान्य और दूसरेका अप्राधान्य प्रतिपन्न होता है। अधःकरण यानी अप्राधान्य और निगरणके सम्बन्धमें अलङ्कारिकोंने एक कारिका लिखी है। यथा- "विषयस्यानुपादानेऽप्युपादानेऽपि सूरयः । अध:करणमावेण निगौर्यात्व' प्रचचते ॥" "भेदैऽप्यभेदः सम्बन्ध सम्बन्धस्तविपर्ययी। पौवापर्यात्ययः कार्यहतोः सा पञ्चधा ततः ॥" (साहित्यद०) १। भेदमें अभेद- "कथमुपरि कलापिन: कलापो विलसति तस्व तलेऽष्टमीन्दुखण्डम् । कुवलययुगल' ततो विलोलं तिलकुसुमं तदध: प्रवालममात् ॥" मोर पूछ ऊपर लसत नीचे आ चन्द । तापर चञ्चल युग कमल फूले पानंद कन्द ॥ क्या हो आश्चर्य है ! ऊपर मोरको पूंछ (केश ) शोभा पा रही है; उसके नीचे अष्टमोका चन्द्र (ललाट) उदय हुआ है ; उसके बाद दो चञ्चल कमल (चक्षु) फूले हैं; उनके नौचे तिलको कली (नासिका) खिली हुई है; उसके नौचे प्रवाल (ोष्ठ ) मनको हरे लेते हैं। इस जगह केशादिके साथ मोरको पूंछ प्रभृतिका पूरा भेद रहते भी अभेद रूपसे वर्णना की गई है। २। अभेदमें भेद- "अन्धदैवाङ्गलावण्यमन्याः सौरभसम्पद. । तस्याः पद्मपलाशाया: सरसत्वमलौकिकम् ।" उस पद्मपलाशाक्षी कामिनीको देहमें जैसा लावण्य है, वैसा और कहीं नहों, वह सौन्दर्य और माधुर्य सभी अलौकिक है। जगत्में जो रूपलावण्यादि देखा जाता, इस जगह उससे कोई विभिन्नता न रहते भी भिन्न रूपसे कल्पना की गई है। राधाम जो-रूप है, वैसो कहुन दिखात । सकल सराहत रात-दिन, धन्ध अलौकिक मात ॥ ३। सम्बन्धमें असम्बन्ध-