पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अतिशयोक्ति-अतिशायिन् २६० "अस्याः सर्गविधी प्रजापतिरभूच्च न्द्री नु कान्तिप्रदः ?. पहले ही मृगनयना रमणियोंका चित्त आकुल हो सङ्गारकरसः स्वयं नु मदनी मासो नु पुष्याकरः ? उठा, पोछे वकुल और आम्रके मुकुल प्रकाशित हो वेदाभ्यासजड़ः कथं नु विषयव्याहत्तकोतूहलो शोभा पाने लगे। निर्मातु प्रभवेन्मनोहरमिद रूपं पुराणो मुनिः ?" सौन्दर्यदाता चन्द्र क्या इस स्त्रीरत्नके सृष्टिकर्ता वकुलादिका पुष्पसौन्दर्य देखने से ही कामिनीयों- हैं, अथवा शृङ्गाररसके एकमात्र आधार स्वयं कन्दने का मन चञ्चल होनेको सम्भावना है। किन्तु इस क्या इसे निर्माण किया है ? या पुष्पके आकर चैत्र- जगह पहले उनके मनको व्याकुलतावालो बात कह, मासने अपने हाथसे संवारा है? कारण सृष्टिकर्ता पोछे पुष्पसौन्दर्यका विषय उल्लिखित किया गया है। इसलिये इसके द्वारा कार्य और कारणका विपरीत ब्रह्मा बहुत वेदाभ्याससे इतने जड़-बुद्धि और विषयसे भाव सङ्घटित हुआ है। निवृत्त हो गये हैं, कि उनका फिर विषय-व्यापारसे (२) "सममेव समाक्रान्तं यं हिरदगामिना । कौतूहलाक्रान्त हो, ऐसा मनोहर रूप बना सकना तेन सिंहासनं पिवा मण्डलञ्च महीचिताम् ॥" सम्भव नहीं। हस्तौके तुल्य मन्दगामा उन रघुन पैटक सिंहासन इस जगह प्रजापति ब्रह्माके प्रकृत निर्माणकर्ता और विपक्ष राजमण्डलपर एक ही कालमें आक्रमण होते भी दूसरेके निर्माणकर्तृत्वको कल्पना को किया था। गई है। पहले सिंहासनपर अधिरूढ होकर पीछे शत्रुओं- रचो अवसि कन्दर्पने, नव राधाको रूप। का जय करना सम्भव है; किन्तु इस जगह दोनो विधिना बूढ़े ह पर, जानकाण्डके कूप ॥ कार्य एक ही समयमें उल्लिखित हुए हैं। इसलिये ४। असम्बन्धमें सम्बन्ध- यहां भी कार्य-कारणका विपरीत भाव हुआ। "यदि स्यान्मण्डले सक्तमिन्दोरिन्दीवरदयम् । अतिशयोक्तिको जगह इव-जैसे, आदि शब्द रहनेसे तदोपमौयते तस्या वदनं चारुलोचनं ॥" यदि चन्द्रमण्डलमें दो नौलपद्म लगा दिये जायं, उत्प्रेक्षालङ्कार होता है। तो उस कामिनीके मनोहर नेत्र-य-शोभित मुखसे अतिशयोपमा (सं० स्त्री० ) वह उपमा, जिसमें उसकी तुलना की जा सकती है। किसी वस्तुको उपमा दूसरो वस्तु के साथ न दी होत निशाकर में कहू', जो युग नौल-सरोज । जा सके। नयन सुशोभित वदनको, भाषत उपमा खोज ॥ "सब उपमा कवि रहे जुठारी। ५। कार्य और कारणके पौर्वापर्यका अभाव । केहि पटतरिय विदेह कुमारी॥" तुलसौ. खाभाविक नियम यही है, कि आगे कारण विद्यमान अतिशर्वर (वै० क्लो०) आधीरात, मध्यनिशा। रहता, पीछे कार्यको उत्पत्ति होती है। किन्तु अतिशष्कुलौ (स• स्त्री०) तिलको रोटी। बहुत बढ़िया, निहायत इसका विपर्यय होनेसे अर्थात् जिस जगह आगे अतिशस्त (स० वि०) कार्य निर्दिष्ट होता और पीछे उसका कारण उम्दा। उल्लिखित हुआ करता, उसी जगह कार्य और अतिशस्त्र (स० त्रि०) हथियारोंसे बढ़िया। कारणका अन्यथा करना होता है। इसे छोड़ इस अतिशाक्कर (सं. त्रि०) अतिशक्कर छन्दमें लिखा गया या उसके सम्बन्धका । प्रकारसे कहनेपर भी, कभी-कभी अतिशयोक्ति हो जाती है, कि कार्य और कारण दोनो एक ही साथ अतिशायन (सं० पु.) अति-शोङ्भावे ल्युट, निपातनादीर्घः। आधिक्य, प्रकर्ष, कसरत। ... उत्पन्न हुए हैं। (१) “प्रागेव हरिणाक्षीणां चित्तमुत्कलिकाकुलं । अतिशायिन् (सं. त्रि.) अति-शी-णिनि। अधिक, पश्चादुदृभिन्नवकुलरसालमुकुलश्रियः ॥" ज्यादा।