पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२७६ अतिसार उदरके भीतर मरोड़ उठा करती और मध्य-मध्यमें सारा पेट दुखने लगता है। मलहारमें अल्प ज्वाला और वेग मालूम पड़ता है। रोगी मलत्याग करने दौड़ता, किन्तु अधिक मल नहीं निकलता। पेटको वेदना और उसका वेग विचारकर देखनेसे जाना जाता है, कि बहुत मल निकलेगा। किन्तु वास्तविक अनेकस्थलमें कुछ भी मल नि:सरण नहीं होता। अनेकक्षण वेगके बाद किञ्चित आम और रक्त निकल आता है। उस समय रोगी अपनेको कुछ सुख समझता है। किन्तु क्षणकालके मध्यमें हो फिर वेग बढ़ता और पेटमें वेदना होने लगती है। कहीं तो, विरेचनके साथ प्रथम-प्रथम मल मिश्रित रहता है। इसके बाद कभी अल्प मल निकलता ; कभी मलका सम्पर्कमात्र भी नहीं रहता; केवल श्लेष्मा और रक्त निर्गत होता है। कहीं-कहीं मारी गई बकरीकासा ताज़ा खून निकल पड़ता है। प्रबल पौड़ामें सर्वाङ्ग उष्ण, नाड़ी वेगवती, मुखमण्डल मलिन और अत्यन्त ग्लानियुक्त हो जाता है। सरला- न्त्रमें अत्यन्त प्रदाह होनेसे रोगी पेशाब नहीं कर सकता, कितने ही कष्टसे केवल दो-एक विन्दु मूत्र उतरता है। इस अवस्थामें रोग शान्त न होने- से क्रमशः दिवारात्रिके मध्यमें ५० । ६० बार मल निर्गत हो जाता है। रोगी एकबार मलत्याग करनेको बैठनेसे फिर उठना नहीं चाहता। वह उदरको वेदना और अतिशय वेगके कारणसे सर्वदा ही व्याकुल रहता है। पीछे उदर अल्प या अधिक स्फौत होनेसे सरलान्त्रमें क्षत उत्पन्न होता ; इसलिये उदरसे गलित पदार्थ भी बाहर निकल आता है। धौर-धौर नाड़ी क्षीण, मुखमें क्षत, हस्तपदादि शीतल, सर्वाङ्गमें सड़ा दुर्गन्ध, प्रलाप प्रभृति उपसर्गों- के बाद रोगीको मृत्यु होती है। किसी-किसी स्थलमें अन्तकाल पर्यन्त ज्ञानका कुछ भी वैलक्षण्य देख नहीं पड़ता। ऐसा भी देखा गया है, कि समस्त इन्द्रियोंके अवश होने और शरीरमें केवल जीवात्माके रह जानेपर भी रोगी ज्ञानसे बात करता रहता, वाक्यमें कुछ भी जड़ता नहीं आती। इसीसे प्रवाद है, कि इष्टदेवताका नाम लेते-लेते सज्ञानमें मृत्यु होनेके लिये पूर्वकालके ऋषियोंने अतिसार रोगको ईश्वरसे कामना कर लिया था। इस समय एक विशेष सतर्कता आवश्यक है। रक्तामाशयको सामान्य व्याधि बता हमारे देशक कितने ही लोग पहले निश्चिन्त रहते हैं। पीड़ा उत्कट न हो जानेसे झाड़-फूकपर हो प्रायः अनेक लोग भरोसा रखते हैं। कितनों हीको विश्वास है, कि हिन्दुस्थानमें अनेक प्रकार अवधूत मतके टोटके तथा झाड़-फूंकवाले औषधोंसे नाना प्रकार कठिन रोगोंका निवारण होता है। किन्तु इसपर भी, अन्न लोगोंके हाथमें प्राणसमर्पण करना कर्त्तव्य नहीं। विशेषतः रक्तामाशय उपस्थित होनेसे यक्वत्को कोई न कोई पौड़ा उठ खड़े होनेको सम्भावना रहती है। इसलिये पहलेसे ही सुचिकित्सकके हाथमें चिकित्साका भार अर्पण करना चाहिये। अवधूत और जड़ी-बूंटौको चिकित्सा-सामान्य प्रकारका रक्तातिसार कितने ही सहज उपायौंसे निवारण होता है। सूरतके पत्ते थूकके साथ दोनो हाथोंके नीचे मर्दन करनेसे तीन घण्टेमें सामान्य रक्तामाशय- का वेग और रक्त रुक जाता है। आयापानवाले पत्तेके रसको सेवन करनेसे सहज आमाशयका निवारण होता है। सोंठ, अजवायन, जीरा, जायफल, कनशुरकी जड़ और इन्द्रयवके बकलेका क्वाथ ही रक्तातिसारका प्रधान औषध है। इसमें इन्द्रयववाले बकलेके क्वाथको छोड़ दूसरी चीजें किसी कामकी नहीं। फिर भी, इन्द्रयवका बकला कषाय और कटु होता, किसी आग्नेय द्रव्यके साथ सेवन न करनेसे वह पेटकोचपेटकर पकड़ सकता है; इसौसे सोंठ प्रभृति द्रव्य उसमें मिलाना आवश्यक है। अजवायन १३॥, जौरा ६॥, सोंठ ३१, जायफल १॥ और कनशरको जड़ २॥ रत्ती कूट-पौसके एक पुड़िया बनाये। इसके बाद डेढ़ सेर इन्द्रयवका बकला एक सेर जलमें उबाले, जब आध सेर जल रह जाये, तब उसे नीचे उतार ले। प्रत्यह सवेरे आध पाव इस क्वाथमें एक पुड़िया बांटके डाले और कुछ