पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२८४

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अतिसार २०७ तैलके साथ उष्ण जलका स्वेद लगाना उचित है। तृष्णा-निवारणके लिये बरफके टुकड़े रोगौके मुख में डालते रहे। पथ्यके मध्यमें मांसका शोरबा, चूने- वाले जलके साथ बकरीका दूध, अन्नका मांड़, चावलको लाईका मांड़ प्रभृति लघु द्रव्योंको व्यवस्था हो सकती है। रोगीको उत्तम रूपमें सुस्थ न होनेतक कोई कठिन द्रव्य न खिलाये। तरुण रक्तातिसार रोगमें वैद्यकमतको चिकित्सासे होमिओपेथी और एलोपेथीको चिकित्सा अधिक प्रभाव विद्यमान है। किन्तु पुरातन रक्तातिसार रोगमें वैद्यको चिकित्सा ही श्रेष्ठ होती है। प्रायश्चित्त-शातातपीय कर्मविपाकमें अतिसारका प्रायश्चित्त यों लिखा गया है, "महापातकर्ज चिह्न सप्तजन्मसु जायते । उपपापोद्भवं पञ्च बौणि पापसमुद्भवम् ॥"

गर्म कर पी जाये। इसीतरह चार दिन चार पुड़िया सेवन करना पड़ती हैं। होमिश्रीपेथी–प्रथमावस्थापर ज्वर होनेसे एकोनाइट १२ डाइल्यूशन एक विन्दु मात्रामें आध छटांक जलके साथ एक घण्टेके अनन्तर सेवन करे। अनेकस्थलमें इस ही औषधसे पीड़ा एकबारगी ही निवारण हो सकती है। रक्तमिश्रित आम किंवा केवल रक्त निर्गत और अत्यन्त वेग एवं मूत्रकृच्छ प्रभृति उपद्रव विद्यमान होनेसे, करोसिभ-पारद ३ डाइल्यूशन एक विन्दु मात्रामें २।३ घण्टेके अन्तर खाये । इससे शीघ्र ही पौड़ाका निवारण होता है। पेटका निम्नभाग स्फीत और दबानेसे उदरमें अत्यन्त कष्ट मालूम होनेपर मुसब्वरका अर्क प्रयोग करना आवश्यक है। वमन किंवा वमनोहेग होनेसे इपि- काकको व्यवस्था करे। शरीर दुर्बल, हस्तपद शीतल और अत्यन्त अस्थिरता विद्यमान रहने पर आर्सेनिक खानेसे विशेष फल होता है। जहां मलेरियाका प्रभाव अतिशय प्रबल हो, वहां रोगीको बीच-बीच में चायना खाना चाहिये। एलोपेथी-रोगी सबल होने और उदरमें सञ्चित मल रहनेसे, पहले एरण्ड्-तैल ४।६ ड्राम, अफीमका अरिष्ट ७ बूंद, पीपरमेण्टका जल ४ ड्राम और अदरकका रस सवा तोले एकमें मिश्रितकर सेवन कराये। कोष्ठ-परिष्कार होनेसे ३० बूद क्लोरो- डाइनको व्यवस्था करे। फिर, १५ मिनिट बाद एक- कालमें २०२५ ग्रेन इपिकाक खिलाये। इपिकाक सेवनके बाद अन्ततः तीन घण्टेतक रोगीको कुछ भी न खिलाये, सुस्थिर भावसे उसे नींद लेने दे। इसतरह सावधान रहनेसे प्रायः वमन नहीं होता। एक मात्रा उदरमें रहनेसे ६ घण्टे बाद फिर १०।१५ ग्रेन मात्रामें एकबार औषधको प्रदान करे। इस महौषधके सेवनसे एक दिन में ही उत्कट रक्तामाशय रोगको शान्ति हो सकती है। इपिकाकके सेवनसे अत्यन्त वमन होता, इसलिये विशेष सावधानता आवश्यक है। पेटको वेदनाको निवारण करनेके लिये तारपीन "कुष्ठच राजयच्या च प्रमही ग्रहणी तथा । मूवतच्छाश्मरीकासा अतिसारभगन्दरौ॥ दुष्टवणं गण्डमाला पक्षाघातीऽतिनाशनम् । इत्येवमादयो रोगा महापापोद्भवाः स्मृताः ॥" "महापापे भवेत् सर्व तदईन्तूपपातकै । दद्यात् पापेषु षष्ठांशं ज्ञात्वा व्याधिवलाबलम् ॥ सर्व पराकरूपं ।' महापातक-जनित चिह्न-खल्प कुष्ठादि रोग मनुष्यको सात जन्म पर्यन्त सताया करते हैं। उप- पातकके चिह्न-जलोदरादि पञ्च जन्म, एवं सामान्य पापजनित चिह्न-दण्डापतानकादि तीन जन्मतक रहते हैं। कुष्ठ, राजयक्ष्मा, प्रमेह, ग्रहणी, मूत्रकृच्छ, अश्मरी, ज्वरयुक्त कास, अतिसार, भगन्दर, दुष्टव्रण, गण्डमाला, पक्षाघात, चक्षुका नाश इत्यादि रोग महापापोद्भव हैं।

महापापमें सकल अर्थात् पराकव्रतके प्रायश्चित्तको व्यवस्था करे। पराकव्रत करनेमें असमर्थ होनेसे पराकके अनुकल्पपर पांच धनुओंकोउत्सर्ग करना कहा