पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२९४

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अत्यन्तौन-अत्यष्टि २८० मन्तिकं येन, बहुव्रौ। ३ दूरवर्ती, दूर। (को०)। अत्ययिन् (सं० त्रि.) १ गमन करते हुए, जाते अतिशयितं अन्तिकं निकटं, प्रादि-स०। ४ अत्यन्त हुए। २ सबकृत ले जानेवाला, जो आगे निकल निकट,बहुत कमदूरी। अतिक्रान्तं अन्तिकं निकटं। जाये। ५ अतिक्रान्त सामौप्य, दूर। अत्यराति (सं० पु०) जनन्तपके एक पुत्रका नाम। अत्यन्तीन (सं० त्रि.) अत्यन्तस्यात्ययः अत्यन्तं ऐतरेय ब्राह्मणके २३ वें अध्याय में लिखा है, कि अत्यये अव्ययी। अवारपारात्यन्तानुकामं गामी। पा ५।२।११॥ यद्यपि अत्यराति राजा न थे, तथापि वाशिष्ठ सत्य हयने अत्यन्तगामी, अज़हद चलनेवाला। इन्हें राजसूयको शिक्षा दी थी, जिससे इन्होंने पृथिवीको अत्यमर्षिन् (सं० त्रि०) अत्यन्त क्रुद्ध, निहायत गुस्सावर। विजय किया। किन्तु जब वाशिष्ठने इन्हें कृतज- अत्यम्बुपान (सं० क्लो०) मात्रातिरिक्त जल पान, ताका स्मरण दिलाया और एक बृहत् पुरस्कार मांगा, अजहद आबनोशी, अपरिमित रूपसे पानीका पौना। तब इन्होंने कहा, कि इनका विचार उत्तर कुरु जीतने- जलपानके विषयमें लिखा है,- का था, जिसके बाद वाशिष्ठ राजा और यह उनके "अत्यम्बुपानान्न विपच्यतेऽन्नं अनम्बू पानाञ्च स एव दोषः । सेनापति बनते। वाशिष्ठने उत्तर दिया, कि किसो तस्मान्नरी बङ्गिविवईनार्य मुहम हुवारि पिदभूरि ॥" राजनिघः । मल्के उत्तरकुरुको न जोत सकनेसे उन्हें उनके बहुत पानी पीनेसे भोजन नहीं पचता और यही पुरस्कार-सम्बन्धमें धोका दिया गया था। इसलिये पानी न पीनेसे भी होता है। इसलिये मनुष्यको उन्होंने अमित्रतपन सुसमिण सैव्यके हाथों इन्हें हरा, भूख बढ़ानेके लिये थोड़ा-थोड़ा पानी बार-बार पीना मरवा डाला। चाहिये अर्थात् एकबारगी अधिक जल न पीये। अत्यक (सं० पु०) शुक्लार्क वृक्ष, सफेद आक या अत्यम्ब (सं• पु०-क्लो०) अत्यन्तमतिशयितोऽम्बरसो यस्य फलादौ, बहुव्रो। १ इमलीका वृक्ष । (त्रि०) अत्यर्थ (सं० ली.) अतिक्रान्तम) अनुरूपस्वरूपम्, २ अत्यन्त अम्बरसविशिष्ट, निहायत खट्ठा । अतिक्रा-तत्। १ अतिशय, ज़ियादती, बहुतायत। अत्यम्लपर्णी (स. स्त्री०) अत्यम्लानि पर्णानि पत्राणि (त्रि.) २ सातिशय, बहुत ज्यादा। (अव्य०) यस्याः, बहुव्री०। १ वल्लिशूरण लताविशेष । २ अम्ल- ३ बहुतायतसे । लोनी, खट्टी चौपतिया। इस बैलमें गोल-गोल अत्यल्प (सं० त्रि०) अतिशयितमल्पम्, प्रादि-तत् । खट्टरसके चार चार पत्ते एक-एक जगहमें लगे रहते १ यत्किञ्चित्, अतिसूक्ष्म, नितान्त अल्प ; बहुत हैं। इसके गुण यह हैं,- थोड़ा, निहायत कम। "अत्यनपर्णी तौहणाला लौहशूलविनाशिनी । अत्यशन (स. क्लो०) अतिशयितमशनं भोजनम्, वातहद्दीपनी रुच्या गुलाग्ने भामयापहा ॥" राजनिघ। प्रादि-तत्। अधिक भोजन, अतिभोजन, ज्यादा अत्यम्ला (सं० स्त्री०) बिजौरा नौबू । गिजा। अत्यय (सं० पु०) अति-इण्-अच् । एरच । पा २३५६) अत्यवि (वै० पु.) १ साफी या छन्ने के १ अतिक्रम, ज़ियादती। २ अभाव, नामौजूदगी। निकास । २ सोमरस। ३ विनाश, मटियामेट । ४ दोष, ऐब । ५ कच्छ, दुःख ; अत्यष्टि (स. स्त्री०) अतिक्रान्ता अष्टिं षोडशाक्षर- तकलीफ, मुसीबत।. ६ दण्ड, सजा। ७ अतिक्रम- पादिकां वृत्तिम्, अतिक्रा०-तत्। सत्रह अक्षरविशिष्ट कारी गमन, लांघनेवाली चाल । ८ कार्यका अवश्य छन्दोविशेष, सत्रह हर्फ.का छन्द । अष्टिकृत्तिमें सोलह भावाभाव, कामको ज़रूरी मौजूदगी या नामौजूदगी। अक्षर होते हैं, अत्यष्टिहत्तिमें उसको अपेक्षा एक अक्षर अत्ययिक, आत्ययिक (सं० त्रि.) क्षणकालस्थायी, अधिक रहता है। निम्नलिखित कई एक छन्द अवसरसम्बन्धीय ; गैरमुदामी, मौकेका। इसौके अन्तर्गत हैं,-मन्दाक्रान्ता. भाराक्रान्ता, अकोड़ा।