पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२९७

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२६० अवक -अवि आदमखोर। ५ भोजन, खुराक। (त्रि०) ६ अरक्षित, वैपनाह। (हि. पु.) ७ अस्त्र, हथियार। अत्रक (मंत्रि.) १ इस स्थानका, यहांवाला। २ सामारिक, दुनियावी। अत्रत्य (सत्रि.) इस स्थानका, इस जगह रहने वाला। अबदन (सं० त्रि०) १ इतने ऊपर पहुंचनेवाल । २ ऐसे या वैसे कदका। अत्रप (सं० त्रि०) न-त्रपूष-अङ, नास्ति त्रपा लज्जा यस्य। विद्भिदादिभ्योऽङः । पा ३।३।१०४॥ निलज्ज, लज्जारहित, जिसके लज्जा न हो; बेशर्म, बेलिहाज, जिसको कोई शर्म नहीं। अत्रभवत् (सं० त्रि.) अयमित्यर्थे, अत्र प्रथमार्थे त्रल्। कर्मधा। इतराभ्योऽपि दृश्यन्ते । पा ५।३।१४ । पूज्य, लाध्य, मान्य ; इज्जतदार, तौकीरपिज़ौर। अत्रयस् (सं० पु.) अत्रिके वंशज, अत्रिकी औलाद। अत्रवस् (वै० पु०) विगत बर्ष, बौताहुआ वर्ष, परका साल। अत्रस्त (सं० त्रि.) न वस्तम्, त्रस्-त । १ भय- रहित, बेखौफ। २ व्यस्तताविहीन, न डरा हुआ। अत्रस्थ (सं० त्रि.) इस स्थानमें ठहरनेवाला, इस "मरीचिरवाङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः । ब्रह्मणो मानसा: पुवा वशिष्ठाय ति सप्त ते " कहते हैं, कि अत्रि ब्रह्माके चक्षुसे उत्पन्न हुए थे। इनकी भार्या कर्दम मुनिकी कन्या अनुसूया थीं। इनके पुत्रोंका नाम दत्त, दुर्वासा और चन्द्र थो। इन्होंने कितने ही वेद-मन्त्रोंकी रचना की थी। मनुसंहिताके प्रथम अध्यायमें लिखा है, कि सृष्टि- कर्त्ताने अपनी देहके दो खण्ड कर एक अंशसे एक पुरुष और एकसे एक नारी बनाई थी। उसी विराट् पुरुषने बहुकाल तपस्याकर मनुको उत्पत्र किया। इसके बाद मनुसे दश प्रजापति हुए। अत्रि इन्हीं में एक प्रजापति थे,- "मरीचिमवाङ्गिरसौ पुलस्ता पुलह क्रतुम् । प्रचेतसं वशिष्ठञ्च भृगु नारदमेव च ॥" (मनु १।२५ ।) किन्तु महाभारतके शान्तिपर्व और अन्यान्य स्थल में लिखा है, कि ब्रह्माने पहले सप्तर्षियोंको उत्पन्न किया था। अत्रि उन्ही में एक ऋषि थे। अत्रिने ऋग्वेदके कितने ही मन्त्रों की रचना की थी। (ऋग्वेद ३ अष्टक-५७से ११४ सूक्त। ) ऋग्वेदके किसी-किसी स्थानमें यह अग्नि, इन्द्र, अखिनौकुमार- दय और विश्वदेवगण के नामान्तररूपसे बताये गये हैं। ऋग्वेदके किसी-किसौ वर्णनमें ऐसा भी देख पड़ता, कि इनको ऋषि या अग्नि समझना कठिन है। यथा,- "याभिः शुचंतिं धनसां सुष'सद तप्त धर्ममोम्यावतमवये । याभि: पृश्निगु' पुरुकुत्समावतं ताभिरु षु ऊतिभिरश्चिना गतं ।” ऋग्वेद १६ ११२॥७॥ जिस साहाय्य द्वारा आपने शुचन्तिको धनवान् बनाया और सुन्दर वासस्थान दिया तथा सूर्यकिरण- सन्तप्त धर्म भी अत्रिके लिये सुखप्रद कर दिया, जिसके द्वारा पृश्निगु और पुरुकुत्सको उनके साथ अवस्थिति करनेके लिये रखा, हे अश्विनौयुगल ! आप इच्छा- पूर्वक उसी साहाय्यसे आगमन कोजिये। इस जगह सायणाचार्यने अत्रिको एक स्वतन्त्र ही व्यक्ति माना है। किन्तु यास्कके मतसे यहां अत्रिका अर्थ हविर्भुक् अग्नि है। यथा,- जगहका। अत्रास (सं० पु.) न त्रासः, अभावार्थे नञ्-तत् । १ भयका अभाव, निडरपन, बेखौफो। (त्रि.) नास्ति त्रासोयस्य, नञर्थे बहुव्री०। २ निर्भय, बेखौफ, जिसे कोई डर नहीं। अत्रि (सं० पु.) अद्-त्रिप, अत्ति अग्नेः सहायतया शत्रून् भक्षयति। अदेस्त्रिन्। उण, ४६८। १ अग्निको सहायतासे शत्रुओंको भक्षणकरनेवाला, भक्षक । २ कितने ही वैदिक मन्त्र बनानेवाले एक बड़े ऋषि। अत्रि सप्तर्षियोंके मध्य एक ऋषि थे। सातो ऋषियोंके नाम यह हैं,-१ मरीचि, ३ अङ्गिरा, ४ पुलस्त्य, ५ पुलह, ६ क्रतु, ७ वशिष्ठ । २ अत्रि,