पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२९८

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अत्रि २६१ “अवये हविषामवेऽनये हविरुत्पत्त्ययं सूर्यकिरण सन्तप्त' धर्म नैदाघ- महरोम्यावन्त तृप्ति हेतुष्टुदकोपेतं कृतान्ताविति योज्यं ।" ऋग्वेदके स्थान-स्थानमें अत्रि खतन्त्र ऋषि भी बताये गये हैं,- "दध्यङ ह मै जनुष' पूर्वी अंगिरा: प्रियमेधः कण्वो अविर्मनुर्विदुले मे पूर्व मनुर्विदुः।” ऋग्वेद १।१३।। दध्यङ, प्राचीन अङ्गिरा, प्रियमेध, कण्ख, अत्रि और मनुने हमारा परुच्छेप जन्म समझ लिया था। वेदके किसी-किसी स्थानमें अत्रि ऋषिपाञ्चजन्यम्' के भी नामसे पुकारे गये हैं,- "ऋषि' नरावहसः पांचजन्यमृबीसादवि मुचयो गणेन । मिनंता दस्योरशिवस्य माया अनुपूर्व 'वृषणा चोदयंता ॥" ऋग्वेद १११७१३ हे ( यज्ञ ) नेटद्दय ! (अश्विनीकुमारयुगल !) आपने पञ्चजातिवाले लोगोंके पूजनीय अत्रि ऋषिको उनके सन्तानगण सहित-शत्रु हनन और दुर्वृत्त दस्युओंको माया भेद कर छुड़ा दिया था। अब देखना चाहिये, कि 'पाञ्चजन्य' कौन थे। यास्कने लिखा है,-"कोई-कोई कहते हैं, कि 'पाच- जन्य' शब्द का अर्थ (पञ्चश्रेणीके जीव) गन्धर्वगण, पिटगण, देवगण, असुरगण और राक्षसगण है। औपमन्यव बताते हैं, कि चार जाति और निषाद- को पञ्चमजाति मान 'पाञ्चजन्य' गिने गये हैं।" किन्तु ऋग्वेदके कितने ही स्थलोंमें अणु, द्रुह्य, पुरु, तुवंश और यदु-इन्हों पांच लोगोंके नाम मिलते है, “यदिंद्राग्नी यदुषु तुर्वशेषु यद्रुह्य ष्वनुषु पूरुषु स्थः । अतः परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य ॥" १।१०८।८॥ यदि, हे इन्द्र और अग्नि ! आप यदुगण, तुवंश- गण, द्रुह्यगण, अनुगण और पुरुगणके मध्य हों, तो सर्वस्थानसे यहां आइये और उथलित सोमरसको पान कीजिये। इस जगह अनु, द्रुह्य प्रभृति पांच व्यक्तियोंके वंश- धरगण मालूम पड़ते हैं। इस ऋक्से यही विदित होता है, कि एक वंशोद्भक होनेपर भी भिन्न-भिन्न व्यक्तियोंके वंशधरगण नाना शाखाओं में बंटनेसे धीरे- धौर भिन्न-भिन्न जातिरूपमें गिने जाते थे। इसलिये पञ्चजातिके लोगों द्वारा पूजित होनेसे यही समझ पड़ता है, कि अत्रि अनु, पुरु प्रभृति वंशधरगणके निकट अतिशय सम्भमास्पद थे। यह तो पीछे खुलेगा, कि अत्रि चन्द्रवंशके आदिपुरुष थे ; इसलिये असम्भव नहीं, कि अनुगण और द्रुह्यगण इनके वंशधर होके इन्हें पूजेंगे। पौराणिक मतमें-विष्णुको नाभिसे ब्रह्मा और ब्रह्मासे अत्रि उत्पन्न हुए थे। अग्निपुराण २७३॥१॥ अत्रि ब्रह्माके मानस पुत्र और ब्रह्माके सदृश थे। विष्णु १।७५ ; मत्सय ३६) हरिवंश २५ अ० । भागवतके मतसे अत्रि ब्रह्माके नेत्रसम्भूत और एकजन प्रजापति थे । यीभागवत ३।१२।२२। स्वायम्भूव मन्वन्तरमें अत्रि सप्तर्षियों में एक ऋषि थे। हरिवंश ७१०। विष्णुपुराणके मतसे वैवस्वत मन्वन्तरके समय यह सप्तर्षिों में एक ऋषि थे। विष्णु ॥१॥३३॥ इनकी पत्नी अनुसूयाके गर्भसे इनके तीन पुत्र उत्पन्न हुए-सोम, दुर्वासा और योगी दत्तात्रेय । विष्णु १।१०।८-८) भागवतमें लिखा है, कि यह तीनो पुत्र ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर-इन भगवान्त्रयके अंशजात थे। इसका विवरण नीचे लिखा जाता “ब्रह्माके पुत्र अत्रि महातेजा ब्रह्मर्षि थे। विधातासे सृष्टिकायैका आदेश पाकर पत्नौके साथ ऋक्षनामक कुलाचलमें इस साधनाके लिये तपस्या करने गये, कि किसतरह सृष्टि रची जाती। इस मनोहर पर्वत पर अत्रिदेवने शतवर्ष पर्यन्त तपस्या में निमग्न रह, प्राणायाम हारा मनःसंयोम किया था ; पीछे रागादिसे रहित हो, अनिल-भोजन करते हुए एक पदपर खड़े रहे। वह इसतरह कठोर तपस्या कर, सोचते थे,- हे जगदीश्वर! मैंने काय-मनसे आपका शरण लिया है, आप मेरे ऊपर प्रसन्न हो अपने-जैसे सर्वगुणवान् पुत्रको प्रदान कौजिये। भगवान् अत्रिदेवने तपोबलसे उद्भासित हो एक पदपर खड़े-खड़े देखा, कि आकाशमार्गमें ब्रह्मा,