पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३०४

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भांति। अथर्ववत्--अथर्ववेद २६० अथर्ववत् (स० अव्य०) अथर्वन् या उनके वंशजोंको इस देशके वेदज्ञानविहीन पण्डित कुरानका अंशमात्र मानते हैं। वह इस वैदको जितना अथर्व विद् (सं० पु०) अथर्व वेदको जाननेवाला आधुनिक समझते, वास्तविक यह उतना आधुनिक ब्राह्मगा। नहीं। यह सत्य है, कि किसी-किसी पुराण और अथर्ववेद (सं० पु.) कर्मधा। चतुर्थ वेद। अमरकोष-जैसे ग्रन्थमैं भी तीन वेदोंके सिवा चौथेका मार्कण्डेय-पुराणमें लिखा है, कि अथर्व वेद ब्रह्माके उल्लेख नहीं पाया जाता। (अमरकोष-१।१।४।४ देखो।) उत्तर-मुखसे उत्पन्न हुआ था। यह वेद भ्रमर किन्तु प्राचीन उपनिषत्, स्म ति, रामायण, महा- और अञ्जन जैसा कृष्णवर्ण है, तथा घोराघोर भारत और कितने ही पुराणों में भी अथर्वाङ्गिरस या स्वरूप और शान्ति एवं अभिचारिकादि प्रक्रियाओंसे अथर्व वेद उल्लिखित हुआ है।* परिपूर्ण है। "श्रुतौरथर्वाङ्गिरसौ कुर्यादित्यविचारयन्। कहते हैं, कि ऋक्, यजुः और साम–इन तीन वाक्शस्त्रं वै ब्राह्मणस्य तेन हन्धादरीन् दिजः ॥" मनु ११॥३३ । वेदोंका कोई-कोई अंश ले तथा कितने ही नये विषय "अथर्ववेदमन्त्र व देवेन्द्र समपूजयेत् (अङ्गिराः)॥ संलग्न कर अथर्वा ऋषिने इस वेदका प्रचार किया। ततस्तु भगवानिन्द्रः प्रहृष्टः समपद्यते। वरच प्रददौ तस्म अथर्वाङ्गिरसे तदा ॥ भागवतके मतानुसार ब्रह्माके दक्षिण और विष्णु- अथर्वाङ्गिरसोनामवेदेऽस्मिन् वै भविष्यति । पुराणके मतानुसार ब्रह्माके उत्तर मुखसे अथर्ववेद उदाहरणमतद्धि यज्ञभागञ्च लपस्वसे ॥" निकला है। (भागवत ३।१२।३७, विष्णु पुराण १।५1५५) महाभारत उद्योगपर्व-१७०। विष्णुपुराणमें एक जगह लिखा है,- (अङ्गिरा ऋषिने ) अथर्व वेदोक्त मन्त्रपाठपूर्वक "एक आसीयजुर्वेदस्त चतुर्दा व्यकल्पयत् । देवेन्द्रकी पूजा की। उस दर्शनसे भगवान् इन्द्रने चातुहीचमभूयमिस्ते न यज्ञमथाकरीत् ॥ ११ आवयव यजुभिंस्तु ऋग भि)व तथा मुनिः । सन्तुष्ट और हृष्ट हो वर दिया कि उनका अथर्वाङ्गि- श्रीमाव' सामभिचक ब्रह्मत्वञ्चाप्यथर्व भिः ॥ १२ रस नाम वेदमें प्रसिद्ध और उन्हें सर्वत्र यज्ञभाग ततः स ऋचमुहृत्य ऋग्वेदं कृतवान् मुनिः । प्राप्त होगा। यजूंषि च यजुर्व द सामवेदञ्च सामभिः ॥ १३ "मेदसा तर्पयेद्देवानथर्वाङ्गिरस: पठन्। राजस्वथव व दन सर्वकर्माणि स प्रभुः । पितृच मधुसपिया॑मन्वहं शक्तितो चिजः ॥" याज्ञवल्का १४४ । कारयामास मैव य ब्रह्मत्वञ्च यथास्थिति ॥” १४ (३ अंश, ४ अध्याय ।) "द ववलप्रवत्ता ये देवद्रोहादभिशस्तका अथर्वकृता उपसर्गकताच 'पहले यजुर्वेद अर्थात् आध्वयंव-क्रियाप्रधान वेद (व्याधयः)।" सुश्रुत-सूच । एक प्रकारका था। वेदव्यासने इस यजुःप्रधान वेदके इसके सिवा-'पाथर्वणिकस्येकलीपश्च' ४।३।१३३, 'कपि- चार भाग बनाये, जिससे चातुर्होत्र स्थापित हुआ। बोधादाङ्गिरसे' ४।१।१०७, 'दाण्डिनायनहास्तिनायनाथर्वणिक० ६।४।१७४ उन्होंने उसके द्वारा यज्ञानुष्ठानकी विधि निर्धारित इत्यादि पाणिनिसूत्रों द्वारा क्या बोधनहीं हो सकता को। इस चातुर्होत्रमें उन्होंने यजुर्वेद द्वारा आध्वर्यव, कि पाणिनिसे भी पहले अथर्ववेद विद्यमान था ? ऋग्वेद द्वारा होत्र, सामवेद हारा औहात्र और इन्हीं सकल प्रमाणों द्वारा हम स्वीकार करते हैं, कि अथर्ववेद द्वारा यथाविधान ब्रह्मत्व स्थापन किया, अथव वेद अति प्राचीन है। और क्षत्रियोंके शान्तिपुष्टि प्रभृति समुदाय दैवकर्म ब्रह्माण्डपुराणमें लिखा है- इस अथर्ववेद हारा ही कराये।' "अथर्वाणं विधा कृत्वा सुमन्तुरददद बिजाः । कवन्धाय पुनः कृतन स च विद्याद्यथाक्रमम् ॥ ५१ .:. यह बड़े ही आक्षेपका विषय है, कि जिस वेदको विष्णुपुराण इतना माननीय समझता और जिस

  • छान्दोग्योपनिषत् ३।४।१-२, तैत्तिरीयोपनिषत् २।३, बृहदारण्यक*

वेदमें ब्रह्मत्व प्रतिपादित हुआ है, उसी अथर्ववेदको २४।१०, २०४।१२. शतपथब्राह्मण ११॥५॥२७, १४।६।१०६ प्रभृति । ७५