पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३०५

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अथर्ववेद कबन्धन्तु विधा कृत्वा पव्यायकं पुनद दी। और अथर्व वेदमें श्रेष्ठ हैं। ब्रह्माण्डपुराणके मतसे द्वितीयं वैदम्पीय स चतुडाकरीत् पुनः ॥ ५२ अथर्ववेदमें ५००० ऋक् और २० ऋषि हैं, जिन्हें मोदो ब्रह्मवनयैव विप्यन्नादन्तथैव च । अङ्गिरसने बनाया है। अग्निपुराणके मतसे इसके षष्टि- शौक्कायनिश्च धर्मज्ञयतुर्थस्तपनः स्मृतः । सहस्राधिक अयुत मन्त्र और एकशत उपनिषत् हैं। बेदस्पर्शस्य चत्वारः शिष्याचे ते दृढवताः ॥ ५३ अथर्व वेदका प्रकृत नाम 'अथर्वाङ्गिरस' है। इस पुनथ विविध विद्धि पथ्यानां भेदमुत्तमम् । अथर्वाङ्गिरस शब्दके संक्षेपमें उल्लेख करनेको लोग जानन्तिः कुमुदादिय वृतोय: शौनक: स्म तः ॥ ५४ शौनकस्तु विधा कृत्वा ददावे कन्तु बचवे । 'अथर्व वेद' कहते हैं। इस समय यही विवेचना द्वितीयां संहिता धीमान सैन्धवायनमन्निते ॥ ५५ करके देखना आवश्यक है, कि अथर्व शब्दका क्या सैन्धवो मुनकेशाय भिन्ना सा च विधा पुनः । अर्थ है ? ऋग्वेदमें अथर्व शब्दके अनेक प्रयोग देख नक्षवकल्पो व तानम्तृतीयः स हिताविधिः ॥ ५६ पड़ते हैं। इन सब स्थलोंके भाष्यमें सायणाचार्यन चतुर्थोऽङ्गिरसः कल्पो शान्तिकल्पञ्च पञ्चमः । अथव शब्दका अर्थ प्रायः ऋषि लिखा है। हौग् येष्ठम्वथर्व गोयते संहितानां विकल्पना: ॥ ५७ साहब कहते हैं, कि अथर्व शब्दका अर्थ ज़िन्द षटशः कृत्वा मयाप्युक्त' पुराणमृषिसत्तमाः । आविश्ताके अनुसार-'अग्नि-पुरोहित' होता है। ऋचामयण पञ्चसहस्राणि विनिययः। अथर्व वेदमें भी अनक स्थलोंपर अथर्व शब्दका उल्लेख सहसमन्यदिशेयषिभिविशति विना ॥ ७५ मिलता है- एतदङ्गिरसा प्रोक्तं तेषामारण्यक पुनः । "अजीजनो हि वरुण स्वधावन् अथर्वाणं पितरं देववन्धु।" इति सख्या प्रसंख्याता शाखाभेदास्तथैव च ॥"७३ (८५०) अग्निपुराणमें इसतरह लिखा गया है,- 'हे स्वधावन् वरुण ! देववन्धु पिता अथर्वाको, "सुमन्तु जलिशैव लोकायनिरथर्वक ॥ ८ आपने उत्पन्न किया है। इसके द्वारा स्पष्ट हो शीनक: पिप्पलादश्च मुञ्जकैशादयोऽपरे । समझ पड़ता, कि अथर्वा किसौ ऋषि विशेषका नाम मन्त्राणामयुतं षष्टिशतञ्चोपनिषच्छतम् ॥"(२७१ १०) है। अथर्वन् शब्दमें भौ प्रमाण दे दिया गया है, उक्त पुराणसकलका भावार्थ यह है, महर्षि कि अथर्वा नामक ऋषि आदिपुरुष ब्रह्मा ज्येष्ठ पुत्र सुमन्तुने अथर्व वेद दो भागोंमें विभक्तकर कवन्ध थे। अङ्गिरा भी एक प्रधान ऋषि रहे। ऋगादि नामक शिष्यको पढ़ाया। कवन्धने अथर्ववेद दो सकल हो वेदोंमें अङ्गिरस् नामका उल्लेख विद्यमान भागों में बांटके पथ्य और वेदस्पर्श या देवदर्श नामक है। जान पड़ता है, कि अथर्वा और अङ्गिरा ऋषिके दो शिष्योंको दिया। वेदस्पर्शने फिर चार भाग बना वंशधरोंने ही अथर्वाङ्गिरस संहिता अर्थात् अथर्व- मोद, ब्रह्मबल या ब्रह्मबलि, पिप्पलाद और शौक्का वेदका सङ्कलन किया था। किसी-किसी विद्वान्के यणि या शौक्तायणि या श्लोकायनिको यह दान मतसे भृगुवंशीयोंने इस वेदके अनेक मन्त्रोंकी रचना किया। पथ्यने फिर तीन भाग कर जाजलि, कुमु. की है। दादि और शौनकको संहिता दे दी। शौनकने नीचे अथर्ववेदके १८ वें काण्डसे २३ वां और अधीत संहिता दो भागोंमें बांटी और उनमें एक शाखा २४ वां सूक्त उद्धृत किया गया है। उसको पढ़नेसे वच को और एक शाखा सैन्धवायनको पढ़ायौ। सैन्धव मालूम हो सकता है, कि पहले अथर्वा और अङ्गिरा अर्थात् सैन्धवायनशिष्य और मुञ्जकेश अर्थात् वधु के वशीयोंके अनेक मन्त्र थे, जिन सम्पूर्ण मन्त्रों के एकत्र शिष्यने अपनी-अपनी संहिता दो-दो शाखाओं में सङ्कलनसे अथर्ववेदकी उत्पत्ति हुई। अथर्ववंशीयगण विभक्त को नक्षत्रकल्प, वैतान या वेदकल्प, जिस प्रणालीसे मन्त्र रखते, वेदमें वही प्रणाली पाई संहिताकल्प, आङ्गिरः या आङ्गिरसकल्प और जाती है। केवल अङ्गिरसोंके मन्त्र मिला देनेको स्थान- शान्तिकल्प-यह पांच अंश संहितासमुदायमें विकल्पक स्थानमें अन्य प्रणालीका अवलम्बन किया गया है।