पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३०८

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अथर्ववेद १०म काण्डमै १० सूक्त ५ अनुवाक २३ प्रपाठक ३५० ऋक् १० " ५ २५ 99 १२, ५ " ५ " २७ ३०४ " 8 99 ४ 2 २८ १८८ ." १४, २ " २ २१ १३९ 19 २ " ३० " १४१ 19 $ २ 99 ३१ ~ 13 १ " ३२ " " १८, " 2 " ३४ " २८३ " १६॥ ७२ " 91 ४५६ २० ॥ १४३, १ .. " ९४१ 99 इसलिये मालूम होता है, कि इस प्रकार समस्त अथर्व वेदके मन्त्र ५८३० से अधिक नहीं। ये समस्त मन्त्र गद्य-पद्यमें रचित हैं, जिनमें पद्यका हो भाग अधिक है। विष्णुपुराणमें अथर्व वेदका यह विवरण मिलता है,- "अथर्वाणामथी बच्चे संहितानां समुच्चयम् । अथर्ववेद स मुनिः मुमन्तुरमितद्युतिः ॥ गिप्यमध्यापयामाम कवन्ध सोऽपि तद्विधा । है। त्वा तु देवदर्शाय तथा पथ्याय दत्तवान् ॥ १० देवदर्शस्य शिष्यस्तु मौझी ब्रह्मवलिस्तथा । शौक्तायनि: पिप्पलादस्तथान्चौ मुनिसत्तम ॥ ११ पथ्यस्यापि वयः शिष्याः कृता येईज संहिताः । जाजलि: कुमुदादिश्श वतीयः शौनको विजः ॥” १२ (३ अंश ६ अ:) 'इसके पश्चात् अथर्व वेदका समस्त विवरण कहते हैं। अपरिमित-दीप्तिमान् सुमन्तु-मुनिने अपने शिष्य कवन्धको अथर्व वेद पढ़ाया था। कवन्धने फिर यह वेद दो भाग कर देवदर्श और पथ्य नामक दो व्यक्तियोंको सिखाया। मौह, ब्रह्मवलि, शौक्तायनि और पिप्पलाद यह चार व्यक्ति देवदर्शके शिष्य बने । पथ्यके तीन शिष्य थे-जाजलि, कुमुद और शौनक ।' अथर्ववेदमें बावनसे कम उपनिषत् नहीं देख पड़ते, जिनके नाम ये हैं, मुण्डक, प्रश्न, ब्रह्मविद्या, क्षुरिका, चूलिका, दो अथर्व शिरस्, गर्भ, महा, ब्रह्म, प्राणाग्निहोत्र, चार माण्डुक्य, नौलरुद्र, नादविन्दु, ब्रह्मविन्दु, अमृतविन्दु, ध्यानविन्दु, तेजो- विन्दु, योगशिक्षा, योगतत्त्व, सन्यास, आरुणीय, कठश्रुति, पिण्ड, आत्मा, पांच नृसिंहतापनीय, उत्तरतापनीय, दो कठवल्ली, केनेषित, नारायण, दो बृहन्नारायण, सर्वोपनिषत्सार, हंस, परमहंस, आनन्दवल्ली, भृगुवल्लो, गरुड़, कालाग्निरुद्र, दो रामतापनीय, कैवल्य, जावाल और आश्रम । अब इस विषयको आलोचना करनेको आवश्यकता है, कि अथर्व वेदको बने कितने दिन हुए। रामायण- में लिखा है,- "इष्टि तेऽहं करिष्यामि पुबोयां पुवकारणात् । अथर्व शिरसि प्रोक्त मन्द : सिद्धां विधानतः ॥" बालकाण्ड १५।२ । 'मैं आपको पुत्रोत्पत्तिके लिये अथर्व वेदके मन्त्रों द्वारा एवं उसके विधानानुसार यज्ञ करूंगा।' यह श्लोक देखनेसे स्पष्ट ज्ञान होता है, कि रामा- यणसे पहले अथर्व वेद सङ्कलित हुआ था। इस वेदके उन्नीसवें काण्डवाले सप्तम सूक्त में कहा गया है, कि इसके सङ्कलनकालमें कृत्तिका नक्षत्र राशिचक्रसे प्रथम था और अश्लेषाके शेष किंवा मघानक्षत्रके प्रथमांशमें क्रान्ति पहुंची थी। इस निर्देश द्वारा अथर्व वेदका सङ्कलनकाल उत्तम रूपसे निश्चित होता है। "चिवाणि साकं दिवि रोचनानि सरीमपाणि भुवने जवानि। अष्टाविंशं सुमतिमिच्छमानो अहानि गीभिः सपर्यामि नाकम् ॥ १ मुहवं मै कृत्तिका रोहिणी चास्तु भद्रं मृगशिरःशमाद्रा। पुनर्वसु सूनृता चारु पुष्यी भानुरश्लेषा अयनं मघा मे ॥ २ पुण्य पूर्व फल्ला न्यौ चाव हस्तश्चिवा शिवास्वाति: मुखो मे अस्तु । राधो विशाल मुहवानुराधा ज्येष्ठा सुनचवमरिष्ट' मूलम् ॥ ३ अन्नं पूर्वारासन्तां में आषाढ़ा ऊर्जये ह्युत्तर आवहन्तु । अभिजिन्मे रासतां पुण्यमेव श्रवण: अविष्ठाः कुर्वतां सुपुष्टिम् ॥४ आ मे महच्छतभिषग्वरीय आ मे इया प्रोष्टपदा मुशर्म। आ रेवती चाश्वयुजी भग' म आ मे रयिं भरण्य था वहन्तु ॥" ५ अथर्ववेद १९ काण्ड, ७ सूत । श्रीयुक्त कृष्णशास्त्रीने ज्योतिषशास्त्रको सहायतासे इस प्रकार गणना को है,- अयन-गति विषुवरेखासे प्रति वत्सर ५० विकला- करके आगे बढ़ा करती है। मघाके मध्य स्थित एक बड़े नक्षत्रके आरम्भ-स्थानसे राशिचक्रके प्रथमांश पर्यन्त , अंश होते है। कृत्तिकाके आरम्भ-स्थानसे