पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३१०

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'हम ऋक् अथर्ववेद ३०३ दो पूर्ण नक्षत्र और एक तीसरे नक्षत्रका एक और सामवेदका नाम मिलता है। किन्तु इन तीनों पाद मिलानेसे एक राशि बनती है। अर्थात् वेदों में कहीं भी अथर्ववेदकी बात नहीं उठी है- प्रत्येक नक्षत्रका परिमाण १३ अंश, २० कला है। "ऋचं साम यजामह याभ्यां कम्माणि कुर्वते । अब ऊपरके हिसाबमें सन्देह उठता है, कि जो एते सदसि राजतों यज्ञं देवेषु यच्छतः ॥ १ कृत्तिकाके पहलेसे गणनाको प्रारम्भ किया जाता ऋच साम बदनाक्ष हविरोजी बजुवलं । एष मा तस्मान्मा हिंसीत् वेदः पृष्टः शचीपते ॥ २ है, तो साढ़े तीन नक्षत्र निकलते हैं। प्रत्येक अथर्ववेद काण्ड ५४ सूक्त । नक्षत्रका परिमाण १३ अंश २० कला रहनेसे पूरण और सामवेदको पूजते, जिनके द्वारा हारा साढ़े तीन नक्षत्रोमें ४३ अंश ४० कला होती लोग यज्ञकर्म सम्पन्न करते हैं। जो देवगणके निमित्त हैं। इसके बाद राशिक द्वारा गणना करनेसे यज्ञ करते, उनकी सभामें वह शोभा पाते हैं। जिन मालूम होगा, कि ७२ वर्षमें यदि अयनगति एकअंश सरकती, तो ४३ अंश और ४० कला जानेसे कितने ऋक् और सामकी बात पूछी गई, वह हवि और ओज एवं यजुः बल है। अतएव हे यज्ञपति ! इन वर्ष हुए होंगे ? इस प्रश्न उत्तरमें ३३६० वर्ष आते वेदोंसे पृष्ट होकर मेरी हिंसा न कर डालना।' इस स्थल में ऋक्, यजुः और साम शब्दका वेदके दूसरी बात यह है, कि जो कृत्तिका नक्षत्रके नामसे उल्लेख होनेके कारण स्पष्ट हो बोध होता है, अन्तसे हिसाब लगाया जाये, तो अयनांश साढ़े चार कि इन तीनों वेदोंके संकलनके पश्चात् अथर्व वेद नक्षत्र बढ़ता है। साढ़े चार नक्षत्रका परिमाण संकलित हुआ था। ६० अंश है। इसलिये ऊपरकी तरह राशिक वर्ष निकलते हैं। अतएव अथर्ववेद रोथ् और हिट्ने साहबको मुद्रित पुस्तकमें अथर्व वेदका पहला मन्त्र यह ही है,- संकलित हुए, कोई पांच हजार वर्ष बीते होंगे। "ये विषप्ता: परियन्ति विश्वा रूपाणि विक्षतः। ऊपरके ज्योतिष और त्रिकोणमितिको गणनासे वाचस्पतिवला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे ॥" ३३८३ वर्ष हुए हैं। इस स्थल में सहज उपायको किन्तु ब्राह्मणसर्व स्व-प्रणता हलायुधने अपने ग्रन्थमें गणनासे ३३६० वर्ष निकलते हैं। इसलिये ३३ लिखा है,- वर्षका प्रभेद पड़ जाता है। फिर, कृत्तिकाके अन्तपर "अथर्व व दादिमन्वस्व दध्यङगथर्वण ऋषिरापोदेवता गायवीच्छन्दः सहज उपाय द्वारा गिननेसे ४३२० वर्ष आये हैं। शान्ति करणे विनियोगः । मन्त्रो यथा-शन्नो दैवीरभोष्टय आपी भवन्तु प्रथम उपाय हारा इसे भी गिननेसे कोई ४३५५ वर्ष पीतये । शंयोरभित्र वन्तु नः ॥" निकलेंगे। अर्थात् उनके मतानुसार इसी स्थानसे अथर्व वेदका इसका विशेष प्रमाण मिलता है, कि अथर्ववेद आरम्भ हुआ और यही उसका प्रथम मन्त्र है। रोट ऋक्, यजुः और सामवेदसे पीछे संकलित हुआ था। साहबको मुद्रित पुस्तकमें वह षष्ट सूक्त का प्रथम मन्त्र ऋग्वेदमें अगस्त्य ऋषिवाला कमि झाड़नेका मन्त्र है। तात्पर्य यह है, कि किसी किसी प्राचीन पुस्तकमें विद्यमान है। अथर्व वेदमें भो एक वैसा ही मन्त्र 'ये त्रिषप्ता' और किसी-किसौ में 'शन्नो देवीरभौष्टये इस लिखा है, मन्त्रसे अथर्व वेदका आरम्भ हुआ है। सायणाचार्यने - "अगस्तास्य 'ब्रह्मणा संपिनमाई कमिम् ।” (अथर्ववेद २ काण्ड, अथर्व वेदका भाष्य किया था, किन्तु इस समय वह देखने में नहीं आता। अथर्ववेद पहलेसे सातवें .६ अनुवाक, ३२ सूक्त, ३ ऋक् ।) 'मैं अगस्ता ऋषिके मन्त्र द्वारा सकल कृमि सम्पिष्ट काण्डतक सूक्तको ऋक्-संख्याके अनुसार रखा गया करता है। इसमें सन्देह नहीं, यह मन्त्र ऋग्वेदसे है; अर्थात् प्रथम काण्डके चार, द्वितीय काण्ड के लिया गया है। इसके सिवा अथर्व वेदमें ऋक्, यजुः प्रति सूक्तमें पांच-पांच, तृतीय काण्डके प्रति सूत्र में लगानेसे ४३२० ।