पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३१२

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अथर्ववेद बल्ख आर्यजातिके प्राणियोंका वासस्थान था, सुतरां यह असम्भव नहीं, कि वहिकोंके साथ प्राचीन भारत- वासियोंका परिचय रहा हो।* अध्यापक रोथ् अपनौ अथर्ववेदीय-आलोचना नामक पुस्तकमें कहा है, 'इसका कितना हो प्रमाण मिलता, कि यह वेद अन्य सकल वेदोंके अन्त में प्रकाशित हुआ है। ऋग्वेद में इन्द्र, अश्विनीकुमारहय और अन्यान्य देवता जिस-जिस स्थलपर पितृगणको मुक्ति के लिये विशेष रूपसे आराधित हुए, अथर्ववेदके चतुर्थ काण्डमें मित्रावरुण उसी-उसी स्थलपर विशिष्ट रूपसे पूजित हैं। जमदग्नि, वशिष्ठ, मेधातिथि, पुरुमोड़ प्रभृति ऋग्वेदके ऋषि इस वेदमें आराध्य हुए हैं। इसतरह स्वीकार किया जा सकता, कि यह ऋग्वेदके कितने ही समय बाद और आधुनिक कालमें प्रकाशित हुआ है। जो हो, लोग यह मानते, कि अथर्ववेद संस्कृत भाषाका अतिप्राचीन ग्रन्थ है। किन्तु पण्डितवर रोथ् जो यह बात कहके इस वेदका अप्राचीनत्व प्रमाणित करते, कि ऋग्वेदके ऋषि अथर्व वेदमें पूजित हुए हैं, उसे हम यथार्थ बताके खीकार नहीं कर सकते। इस विषयमें कितना ही सन्देह है, कि ऋग्वेदके ऋषियोंने ही ऋग्वेद प्रका- शित किया है। (ऐतरेय आरणक-१ आ २ अ० देखो।) फिर भी उन्होंने अथर्व वेदको परीक्षाकर जो उसका ऋग्वेदके पौछ प्रकाशित होना माना, वह स्वीकार्य है। महात्मा होग इस वेदको कोई २००० वर्षका पुराना मानते हैं। किन्तु हम इसे इससे भी प्राचीन समझते हैं, क्योंकि पाणिनि मुनि और निरुक्त कार प्राचीन यास्क मुनिने (निरुक्त नेघण्टु क काण्ड ॥५) भी सङ्केतसे इस वेदका उल्लेख किया है। हौग साहब इस वेदके साथ अविस्ता-शास्त्रका सादृश्य दिखा गये हैं। अथर्ववेदकी तरह अविस्ता-शास्त्र में भी मारण, उच्चाटन, स्तम्भन और भैषज्यादि लिखित हैं। (अविस्ता- होम यष तु ८१-३२ देखो।) होम-यष्त्में ( १२४) 'अपां

  • Indische Theorieïn over ed Standenverdeeling, p. 13.

Abhandlung über den Atharwaveda, p. 12, 22. ऐविष्टिष' अर्थात् जलका आगमन उल्लिखित है। होगका कहना है, कि यह कई एक साङ्केतिक शब्द अथर्ववेदसे उद्धृत किये गये, जो अथर्ववेदके प्रथम हो भिन्नाकारसे लिखे हैं।* सिवा इसके अविस्ताके कितने ही विषय अथर्ववेदसे मिलते हैं। (अविस्ता शब्दमें समस्त विवरण देखो।) अविस्ता प्राचीन पारसियोंका धर्म- शास्त्र है। मालूम होता है, कि अविस्ताके साथ अथर्व वेदका ऐक्य रहनेसे कितने ही लोग इसे वेद नहीं मानते। किन्तु इसका कोई प्रकृत कारण नहीं। अथर्व वेदका दूसरा नाम अथर्वाङ्गिरस वेद है, स्थान-स्थानमें केवल आङ्गिरस वेद अर्थात् अङ्गिरा और अङ्गिरा-वशीय ऋषियोंका वेद बताकर यह लिखा गया है। जो अग्नियाजक अङ्गिरा और आङ्गिरस ऋषि हिन्दू और पारसीक दोनों जातियोंके परम श्रद्धेय और भक्तिभाजन बताये गये हैं, इस आङ्गिरस आख्या द्वारा यह वेद उन्हींसे प्रकाशित हुआ मालूम पड़ता है। पुराणमें इस वेदको अङ्गिराका अपत्य कहा गया है। (भागवत हाहा१६ देखो।) इस वेदका फिर दूसरा नाम आथर्वणवेद अर्थात् अथर्वा- मतानुयायियोंका वेद है। आविस्तिक आयवन और वैदिक आथर्वन् शब्द यथाक्रम याजक और वैदिक अग्नियाजकके प्रतिपादक हैं। यह समस्त पर्यालोचना करके देखनेसे प्रकरण विशेषमें आविस्तिक धर्मशास्त्रके साथ आथर्वन् धर्मका कुछ विशेष सम्बन्ध अवश्य ही लक्षित या सम्भावित हुआ करता है। अथर्व वेदमें सब मिलाके तेंतीस देवता हैं। (अथर्वसहिता १०।७।१३,१०।७।२३,१०।७।२७।) अविस्तामें भी तेंतीस रतु अर्थात् अध्यक्ष अहुरमजद-स्थापित और जरथुस्त्र-प्रचारित सर्वोत्कृष्ट तत्त्वसमुदाय प्रचलित रखने के लिये नियोजित हैं। (यश्न १।१०।) 'वैदिक-गवेषणा' नामक पुस्तकमें पण्डित सत्यव्रतसामाश्रमिने लिखा है,-'अथर्व वेदको कुरानके अंश बतानेका कारण भी मौजूद है। अथर्ववेदके जिस-जिस अंशमें चिकित्सासम्बन्धीय अथर्व वेद श६१, और Haug's Essays on the Parsis, 3rd ed. p. 182.