पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३१३

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- अथर्ववेद प्रस्ताव लिखा है, उसे सिन्धुनद और कास्पिय गया। किन्तु सम्भवतः कितनों होने विवेचना करके सागर पारवासी यावनिक जातिने सीखा था। नहीं देखा है, कि यह शब्द अथर्व वेदमें हैं या नहीं। सागर पारस्थित अनेक उद्भिद और फलफलोंको हमने आजकल के रोथ् और बित्ने द्वारा प्रकाशित बात अथर्ववेदमें मिलनेसे इसे लोग यावनिक समस्त अथर्व वेद पढ़के देखा, किन्तु कही यह सकल बता अश्रद्धेय समझते हैं। किन्तु वास्तविक शब्द देख न पड़े। (फिर भी चाहे किसी दूसरी अथववेद कुरानका अंश नहीं। जब कुरान बना शाखामें हो?) केवल दो मन्त्रों में इनका आभासमात्र भी न था, जब मुहम्मदका नाम तक सुना न गया देख पड़ता है, किन्तु अर्थ अन्यप्रकार है,- था, तभी अथर्व वेदको सृष्टि हो गई थी मालूम "आदलाबुकमेककम् ।। अलाबुकं निखातकम् ।" २ (अथर्ववेद २०११३२ स०।) पड़ता है, कि अथर्ववेदको कुरानके अंश कहनेका दूसरा कोई कारण हो सकता है; क्योंकि बदावनी आजकल 'अल्ल' नामक एक उपनिषत् प्रचलित है, जिसे कोई-कोई आथर्वण-सूक्त कहा करते नामक एक मुसलमान इतिहासलेखकने अपने हैं। (प्रवकमनन्दिनी ५म भाग १म संख्या, और शब्दकल्पद्रुममें 'अल्ल' शब्द 'मुन्तख,ब' नामक ग्रन्थमें लिखा है, 'इस वत्सर देखो। ) इस क्षुद्र ग्रन्थ में 'अल्ला इल्ले' प्रभृति शब्द आये (सन् १८३ हिजरी या १५७५ ई०) दक्षिण देशसे शेख भावन नामक एक शिक्षित ब्राह्मण आये और मुसलमान हैं। फिर भी यदि यह उसी समयके अथर्ववेदका धर्मसे दीक्षित हुए। उसी समय सम्राट अकबरने अंश हो, तो उस समयके हिन्दूओंका भ्रम कहना हमें 'अथर्वन्' अनुवाद करनेका आदेश दिया। पड़ेगा। क्योंकि इस ग्रन्थमें कुरानको जो बातें मिलती हैं, वह वेद, निरुक्त, पाणिनि प्रभृति किसी इस ग्रन्थ के कितने ही धर्मोपदेश इस्लाम धर्मशास्त्रसे मिलते हैं। अनुवादके समय ऐसे कितने ही कठिन प्राचीन ग्रन्थ, यहांतक, कि अथर्व प्रातिशाख्यमें भी अंश देख पड़े, जिनका शेख-भावन-जैसे पण्डित भी नहीं देख पड़ती। विशेषतः इस ग्रन्यके बीच सङ्केत- भावप्रकाश कर न सके। हमने यह बात सम्राट्स से अकबर बादशाहका नामतक मिलता है। (चाहे कही, उन्होंने शेख फेज़ी और हाजी इब्राहीमको इस शब्दका अर्थ दूसरे ही प्रकार हो।) इन सकल अनुवाद करनेको अनुमति दी। हाजी इब्राहीमने प्रमाणों द्वारा यही स्वीकार किया जाता है, कि यह अकबर बादशाहके किसी सभापण्डितका बनाया और इच्छा रहनेपर भी कुछ न लिखा । अथर्वन्के .उपदेशों में एक जगह लिखा है, कि इस पुस्तकका अथर्ववेदमें प्रक्षिप्त हो आथर्वण-सूक्त अथवा अल्लोप- कोई न कोई अंश न पड़नेसे कोई भी रक्षा न निषत् नामको प्राप्त हुआ है। इसका प्रमाण पायेगा। इस अंशमें पुनः पुनः ‘ला' लिखा गया है, जो अनावश्यक है, कि मुसलमान धर्ममें दीक्षित करने के लिये समय-समयपर सकल हो मुसलमान बादशाह हमारे कुरानमें कहे 'अल्लह, इल्लह' इत्यादि जैसा है। शेखने इन अंशोके आधारपर ब्राह्मणों को परास्त किया इसी प्रकार नाना उपायोंको अवलम्बन करते थे। था और वह इस्लाम धर्मग्रहण करनेपर वाध्य हुए इस प्रकारके कार्य हारा ही क्या अकबर हिन्दूओंके थे।' ( मुन्तखबुल तवारीख, २ ख०, २१२ पृ. । अब मालम प्रियपात्र बन गये थे ? मालूम होता है, कि वह होता है, कि अकबर बादशाहके समय अथर्व वेद- अपनी सुविधाके लिये ही संस्कृतका साहित्य-भाण्डार कल्पित 'अल्लह, इल्लह' इत्यादि नाम सुनकर अनेक माटभाषामें गच्छित रखने के लिये यत्नवान् हुए थे। इसमें सरहिन्द-निवासी हाजी इब्राहीमका हिन्दू इसे कुरानका अंश समझते थे। फिर इन नामोंसे कितने ही मुग्ध होकर कुरानको श्रेष्ठ मानते, अनुवाद किया हुआ ब्रह्मवेद अथर्व पारस्य-भाषामें इस्लाम धर्मसे दीक्षित होते थे। इसीलिये उस गृहीत किया गया था।* बोध होता है, कि समयसे अथर्ववेद हिन्दुओंको अश्रद्धाका पात्र बन Blochmann's Ain-i-Akbari, p. 105.