पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३१४

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. 1 अथर्ववेद अकबर बादशाहसे पहले अथर्ववेदको कुरानका अंश बता कोई अश्रद्धा करता न था। यदि अथर्व वेदका ये सहसमराजन्नासन् दशशता उत । कोई कोई अंश किसी पाश्चात्य धर्मशास्त्रसे मिलता ते ब्राह्मणस्य गां जग्धा वैतहत्याः पराभवन् ॥ १० गौरव तान् हन्धमाना वैतहव्या अवातिरत्। ... हुआ माना जाये, तो वह सिवा पारसियोंवाले धर्म- ये कैसरप्राबन्धायावरमाजामपचिरन् ॥” ११ शास्त्र अविस्ताके दूसरा कोई भी ग्रन्थ नहीं। अथर्ववेद ५म काण्ड १ सूक्त । अथर्व वेदका एक प्रातिशाख्य मुद्रित हुआ है। ऋग्वेदमें इन्द्र, सूर्य, अग्नि, अश्विनीकुमार इसमें अन्यान्य काण्डोंके अनेकानेक उदाहरण मिलते प्रभृति देवताओं की स्तुति और अर्चना की गई है। हैं , किन्तु आश्चर्यका विषय यह है, कि उन्नीसवें किन्तु अथर्व वेदमें काल, काम, यम, मृत्यु, देव, काण्डका एक ही उदाहरण दिया गया है, बीसवें दानव प्रभृति सबका ही स्तव देख पड़ता है। जगत्में काण्डका कोई उदाहरण नहीं। इसीसे कोई- जो है, उसका स्तव किया गया और जो मनसे नया कोई अनुमान करते हैं, कि यह प्रातिशाख्य बनाना पड़ता, उसका भी स्तव इसमें वर्तमान है,- लिखे जानेके पश्चात् आधुनिक उन्नीसवां और “नमो देववधभयो नमो राजवधभाः । बीसवां काण्ड अथर्ववेद में मिला दिया गया है। अथो ये विश्यानां वधास्त भयो मृत्यो नमोस्तु ते ॥१ ऋग्वेदके प्रायः समस्त छन्द अथर्ववेदमें देख पड़ते नमस्त अधिवाकाय परावाकाय ते नमः । हैं। इसके चौथे काण्डवाले इक्कीसवें सूक्तमें अङ्गिरा, मुमत्य मृत्यो ते नमो दुर्मत्ये त इदं नमः ॥ २ अगस्ति, जमदग्नि, अत्रि, कश्यप, वशिष्ठ, श्यावास्य, नमस्ते यातुधानेभधी नमस्ते भेषभाः । वध्युख, पुरुमीढ़, विमद, सप्तवध्रि, भरद्वाज, गविष्ठिर, नमस्ते मृत्यी मूलभो ब्राह्मणेभा इदं नमः ." ३ अथर्व वेद ६ काण्ड १३ सूक्त । विश्वामित्र, कुत्स, कक्षिवान्, कख, त्रिशोक, काव्य, उशना, गौतम और मुह-इन सकल ऋषियोंके ऋग्वेदके ऋषियोंने कहीं भी यातुधान, दुर्मति नाम वर्तमान हैं। इनमें से अनेक ऋग्वेदके ऋषि प्रभृतिको नमस्कार नहीं किया। अथर्व वेदमें रोगादि हैं। अथर्व वेदसे भिन्न जो कितने ही मन्त्र हैं, उन्हें झाड़नेके मन्त्र अधिक देख पड़ते हैं, दूसरे वेदोंमें आथर्वण कहते हैं ; किन्तु यह ठीक नहीं कह सकते, इतने नहीं। स्वामीको वशीभूत करने, विष झाड़ने, कि वह आथर्वण अथर्ववेदसे विभिन्न हैं या नहीं। शत्रुको मारने और वध्यानारीको सन्तानोत्पत्तिके पहले बताया जा चुका है, कि सम्प्रति अथर्ववेदको मन्त्र अथर्व वेदमें विद्यमान हैं। उस समयके जो केवल शौनक शाखा मिलती है। किन्तु कोई-कोई सकल ब्राह्मण क्षत्रियोंका पौरोहित्य करते, उन्हें कहते हैं, कि पैप्पलाद शाखा भी नष्ट नहीं हुई। अथर्ववेद अच्छीतरह पढ़ना पड़ता था। रघुवंशमें अथर्ववेदक सङ्कलनकालमें ब्राह्मणों को अतिशय प्रति कालिदासने 'अथर्व निधि' विशेषण लगा वशिष्ठको पत्ति थी। निम्नलिखित मन्त्र इस विषयके विशिष्ट गौरववृद्धि की है,- प्रमाण हैं,- “अथाथव निस्तस्य विजितारिपुरः पुरः।" "उत यत् पतयो दश स्त्रिया: पूर्व अब्राह्मणाः । कालिदासने यह भी भली भांति प्रकाश कर ब्रह्मा चद्धस्तमयहीत् स एव पतिरकधा ॥८ दिया है, कि वशिष्ठ ऋषिका मन्त्रबल कैसा था,- ब्राह्मण एव पतिनं राजन्यो। न वैश्यः । "तव मन्त्रकतो मन्त्र : दूरात् प्रशमितारिभिः।" तत् सूर्यः प्रबुवन्नेति पञ्चभ्यो मानवेभाः ॥" अथर्व वेद, ५ काण्ड १७ सक्त । कोई व्यक्ति मृतकल्प होनेसे वह मन्त्र पढ़, उसे फिर दूसरी जगह देखने में आता है,- झाड़ते थे। उदाहरणार्थ यहां एक मन्त्र लिखा "न ब्राह्मणी हिंसितव्योऽग्निः प्रियतनोरिव । जाता है। किसीको कठिन रोग लगनेसे ऋषि यह सोमो ह्यस्य दायाद इन्द्रो अस्वाभिशस्तिपाः ॥६ पढ़कर झाड़ते-फूंकते थे,