पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३३६

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अदिमग ३२६ बनता है। यौवन झलकते ही इनकी बालिकायें दासीको तरह खामोके पास सदा नहीं उपस्थित युवापुरुषों के साथ रहती ; जङ्गल-जङ्गल घूमा करती रहतीं। वह स्वामीसे दुःख पानपर उसे छोड़ सकती हैं। वह फूल तोड़ती, माला पिरोती ; आप पह हैं। किन्तु पतिके पत्नी या पत्नौके पतिको छोड़नेसे नतीं, अपने साथवाले बन्धुके गलेमें भी पहना देती हैं। इन्हें अपने-अपने समाजके प्रधान व्यक्तिको अर्थदण्ड जो बात ऊपर कह जुके हैं, उसके सुखका प्रेम-सञ्चार देना पड़ता है। अर्थदण्ड न देनेसे दम्पतीमें छोड़ा- इसी जगह होता है। एकबार देखते, दो बार देखते, छांड़ी नहीं होती। अांखफाड़-फाड़ सारा दिन देखते ; फिर जो अच्छा चट्टग्रामके कितने ही असभ्य पहाड़ियों में दासत्व- लगता, उसे भौतर-बाहर सोते-जागते सब जगह की प्रथा प्रचलित है। किसीको ऋण लेना आवश्यक देखा करते हैं। सदा जो साथ रहता है, हम उसे होनेसे वह अपने एक सन्तान या परिवारके किसी जानते हैं, कि वह कैसा है और वह हमें जानता है, व्यक्तिको महाजनके पास रहन रख देता है। कि हम कैसे हैं; हम उसे प्यार करते और वह हमें रहन रखनेवालेको व्याज नहीं देना पड़ता, उस प्यार करता है। इसीतरह मनसे मन मिलानेकी रहन रखे गये मनुष्यका कायिक परिश्रम हो व्याज- इच्छा दोनोको रहती है। पिता-माताके हाथसे के बराबर समझा जाता है। ऋण चुक जानेसे हाथ मिला देनेपर मन बिलकुल नहीं मिलता। रहन रखा गया मनुष्य अपने घर वापस आता तुङ्गथा वनवासी ही क्यों न हों, किन्तु इस बातका है। किसी व्यक्तिका कोई आत्मीय-वजन न होते मतलब नहीं समझ पड़ता, कि हमारे समाजमें जो भी वह अपनेको आप रहन रख सकता है। प्रथा नहीं, उसको निन्दा करना ही पड़ेगी। महाजन इन सकल दास-दासियोंके साथ अच्छा हत्या और यथार्थ व्यभिचार वनवासियोंके घरमें नहीं व्यवहार करते हैं। अपने पुत्र, कन्या और परिवार- देख पड़ता। प्रणय और जीविकाके लिये पुरुषका का जैसे लालन-पालन करना पड़ता, वह रहन साक्षात्-इन दोनो बातोंका भेद इन्होंने खूब समझ रखे हुए दास-दासियोंसे भी ठीक वैसे ही सह-ममता यह बात सुन इनका शरीर रोमाञ्चित दिखाते हैं। हम उन्हें क्रौतदास या गुलाम कहते, होता और अन्तरात्मा कांप उठता है, कि हमारे जो अपनेको महाजनके घर रहन रखते हैं। किन्तु सभ्यदेशमें जीविका पाने के लिये दुश्चरित्रा बालिकायें यह हमारी समझको भूल है। दासत्वदशाका ऐसा रहनेको जगह पा जाती हैं। सुख देखके सभी जन्म-जन्म दास होनेकी इच्छा करते तुङ्गथाओंके विवाहमें धर्मानुष्ठानके साथ कोई हैं। प्रभु दास और दासोको पुत्र और कन्या मानते, वन्धन नहीं पड़ता। पात्र और कन्याको इच्छा दास-दासी भी प्रभुको पिता-जैसा पूजनीय समझती होनेसे हो विवाह किया जाता है। विवाह हो हैं। इसीतरह एक-एक ग्राहस्थकै घरमें पुरुषानु- जानेसे स्त्रियां जगत्में सिवा पतिके और किसौसे क्रमसे कितनी ही दास-दासी रहती हैं। दासके सम्बन्ध नहीं रखतीं। इसके बाद सती-सावित्रीको औरस और दासोके गर्भसे पुत्रकन्या उत्पन्न होती हैं। भी एक बार आके देखना पड़ता, कि पातिव्रत्य गृहस्थके घरमें किसी दासको कन्याका विवाहकाल कैसा होता और भला घर क्या है। विवाहिता उपस्थित होनेसे, प्रभु आप हो यत्न लगा विवाह बालिये परपुरुषके साथ नहीं रहतों ; उपपति और करवा देते हैं। विवाहका समस्त व्यय प्रभु उपपत्नी-इन सब बातोंपर उन्हें नरकसे भी अधिक आप हो उठाते हैं। घरमें अविवाहिता दासी घृणा होती है। दैवात् यदि कोई परस्त्रीपर रहनेसे पहाड़ियोंमें ऐसा कोई कुलागार आक्रमण करता, तो उसे फांसी दी जाती है। इस नहीं, जो उसका सतीत्व नष्ट करे। किन्तु प्रभुको जातिमें ऐसे सुखका दाम्पत्यभाव रहते भी स्त्रियां स्त्री मर जानसे यदि दोनोका मन मिल जाये, तो वह ८३