पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३५०

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अद्रोह-अहत ३४३ ४/७३। पा ५।४३। अद्रोह (सं० पु०) न द्रोहः, अभावार्थे नत्र-तत् । "अहारेण च नातीयद ग्राम वा वेश्म बानतम् । द्रोहका अभाव, डाहका न होना। राबी च वृक्षमूलानि दूरतः परिवर्जयेत् ॥” अद्रोहवृत्ति ( स० स्त्री० ) वह वृत्ति या स्वभाव, जिसमें 'प्राचौरादिवेष्टित ग्राम किंवा गृहमें प्राचीरको द्रोह न रहे. तबीअत जो हसदसे बरी हो। उल्लङ्घनकर प्रवेश करना न चाहिये। रातके समय अद्रोहिन् (सं० त्रि.) द्रोहसे दूर, जो हसद न वृक्षके मूलको वासको दूरसे हो परित्याग करे।' करे। कुल्लूकभट्टने इसको यों टीका को है,- अदय (सं० क्लो०) न हयम् । डिविभ्यां तयस्यायचा । 'प्राचीराद्याइतं ग्रामं राहव डारव्यतिरिक्त प्रदेशेन प्राकारादि लङ्घन १ दोका अभाव, एकताई। २व्रह्मका क्वत्वा न विशेत् ।' एकाको भाव। ३ अन्तिम सत्य। (पु.) ४ बुद्धका अहिज (सं० त्रि०) ब्राह्मण नहीं, जो ब्राह्मण एक नाम। (त्रि.) ५ दो नहीं, एक, अकेला, न हो। तनहा। अहितीय (सं० त्रि०) विधा इतं भेदं गतं होतं तस्य अहववादिन्, अद्वैतवादिन् (सं० पु०) अय-वद्- भावः इतं तन्नास्ति यस्य, बहुव्री। इस्तीयः पा ५१२।५४॥ णिनि ; सर्व खल्विदं ब्रह्म इति वदति । १ वैदान्तिक, १ स्वजातिके द्वितीयसे रहित. अपनी जातिमें बेजोड़ । अतवादी। २ बुद्ध। २ केवल, खास । ३ अतुल्य, लासानी। अद्दयत्, अद्दयम् (वै• त्रि०) न-दि असिच्. नास्ति अहिष्य ण्य (वे० वि०) न इष्टुं शोलमस्य, हिष- इयं यस्य । नित्यमसिच् प्रजामधयोः। पा ५४१२२ । नित्यग्रहणा एण्यन् किच्च ; नज-तत्। प्रियरूप, प्रियरस, अद्देष्य- दन्यचापि भवतीति सूचाते। ( इति वामनः) हयरहित, जिसमें रस ; जो घृणा करने योग्य न हो, जिससे वैर रखना दो न हों। उचित नहीं। अहयानन्द (सं० पु.) अहयात् लञ्च: आनन्दः । अद्देष (स० पु.) न इषः, अभावार्थे नज-तत् । ब्रह्मानन्द, ब्रह्मज्ञानोदित आनन्द, वह आराम जो १ वषाभाव, हसदका न रहना। (त्रि.) नास्ति परमेश्वरको पहंचाननेसे मिलता है। २ आत्मबोध- द्वेषोऽस्य, बहुव्री० । २ हेषशून्य, द्वेषरहित ; हसद टीकाकार। (त्रि.) ३ ब्रह्मानन्दविशिष्ट, जिसे न रखनेवाला, दिलका सञ्चा। परमेश्वरका आनन्द मिला हो। अद्देषरागिन् (स० त्रि०) द्वेषसे दूर रहनेवाला, अद्दयानन्दनाथ-कृष्ण के पुत्र, कालरात्र-पद्धति-रचयिता। जो हसद न रखे। अहयारण्य–एक वैदान्तिक, योगवाशिष्ठरामायणटोका अद्देषस् (वै• त्रि०) न-दिष-असुन्, नत्र -तत् । और प्रमाणमञ्जरीव्याख्या-रचयिता। अद्देष, द्वेषहीन, जिसे डाह न रहे। अद्दयाविन् (वै० त्रि०) देवपिढ्यानरूप मार्गहयसे रहित। अद्देषिन् (स० त्रि०) देषरहित, हसदसे खाली। अद्दयु (वै• त्रि०) न इयं द्विप्रकारो ऽर त्यस्य वाहु- | अद्देष्ट्र (सं० पु.) जो शत्रु न हो, मित्र ; दोस्त । लकात् उ, बहुव्री०। द्विप्रकार काटता-शून्य, भौतर अद्दत ( स० क्लो०) विधा इतं होतं तस्य भावः और बाहर एकभावयुक्त । हतं भेदः ; न दैतम्, अभावार्थे नत्र-तत्। १ अभेद, अहार (सं० ली.) न हारम्, निन्दार्थे नत्र -तत् । एकताई। २ ब्रह्म और जीवको अभिन्नता। ३ १ गुप्तहार, प्रवेशके अयोग्य हार। २ वह स्थान जहां अन्तिम सत्य, आखिरी सचाई। ४ एक उपनिषत्का हार न हो, बदरवाजे की जगह । (त्रि.) नास्ति नाम। (त्रि ) नास्ति हैतं भेदो यत्र, बहुव्री। हारं यस्य, बहुव्री। ३ द्वारशून्य, बेदरवाजा। ५ भेदरहित, द्वितीयरहित, एक, ब्रह्म ; दोसे खाली, ४ दुष्प वेश, घुसनेके नाकाबिल । ५ अनुपाय, जिसे जिसका कोई जोड़ न हो। किसी तरहको न सूझ। मनुसंहितामें लिखा है. (पु.)६ अतिप्रभु नामक एक गौराङ्गभक्त आचार्य।