पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३५९

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३५२ अधर्मचारिन्–अधश्चौर धर्मकर एक काल्पनिक उपाय द्वारा मनको समझा एक अधर्मास्तिकाय भी है। इसमें नित्यता और लेता है। ऐसे हो कूट तक खड़ेकर निरस्तिवादी रूप नहीं और यह जीव और पुद्गलको स्थितिको धर्माधर्मको नहीं मानते। साहाय्य देता है। इसमें स्कन्ध, देश और प्रदेश नामक २ ब्रह्माके एक पुत्र। (वायु और ब्रह्माण्ड पुराण १०।१।) तीन भेद रहते हैं। अधर्मकी भार्याका नाम मिथ्या था, जिसने माया अधर्मिन् (सं० त्रि०) अधर्म-इनि अस्त्यर्थे । अधार्मिक, नामको कन्या और दम्भ नामके पुत्रको उत्पन्न किया। अधर्मात्मा, पापाचारो ; गुनहगार इज़ाब करनेवाला । निऋतिने अपुत्रा होनेके कारण माया और दम्भ अधर्मिष्ठ (सं० त्रि.) अतिशायने अधर्म-इष्ठन् दोनोको ले लिया था। (यौभागवत ४८२) श्रीमद्भागवत भत्वाद् टिलोपः । अतिशायने तमविष्ठनौ। पा ५॥३॥५५॥ अतिशय और विष्णुपुराणमें इसका उल्लेख नहीं, कि अधर्म पापयुक्त, अतिशय अधर्मशील, महापापी। किसके पुत्र थे। टीकाकार श्रीधरस्वामीने निम्न- अधर्मी (हिं० पु०) पाप करनेवाला व्यक्ति, पापी लिखित शुकोक्त वचन अवलम्बनकर अधर्मको ब्रह्माका मनुष्य। ही पुत्र बताया है, अधर्म्य (सं० त्रि०) न धर्माय हितं यत्। पापोत्- "धर्मः स्तनादक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयं। पादक, अन्याय-सम्बलित, नियम या धर्म विरुद्ध, अधर्म: पृष्ठतो यस्य मृत्यलौकभयङ्करः ॥" पापमय ; इजाबसे भरा, लामजहब, गुनहगार। (विषणुपुरामकी टीका ११७२६) अधर्षणो (सं० त्रि०) प्रचण्ड, पुरजोर ; प्रबल, अधर्म शब्द पुराणादिमें रूपक भावसे व्यवहृत है। ताकतवर; निर्भय, बेखौफ ; जो दबाया या डराया फलतः यह एक मनोवृत्ति है जो अनिष्ट कार्योत्पादक न जा सके, जिसपर कोई प्रभाव डाल न सके, जोतने- होनेसे मृत्यु, पातक प्रभृति नामों पर प्रयोग की गई के अयोग्य। है। ३ सूर्यके एक सहचरका नाम । अधवा (स० स्त्री.) न विद्यमानो धवः पतिर्यस्याः, अधर्मचारिन् (वै० त्रि.) धर्म चरति अनुतिष्ठति, बहुव्री०। विधवा स्त्री, मृतभर्तृका, रांड, जिसका चर-णिनि ; न धर्मचारी, ६-तत्। पापाचारी, धर्मका पति विद्यमान न हो, बेशोहरकी औरत । अनुष्ठान न करनेवाला, जो मजहबके खिलाफ़ अधवारी (हिं० स्त्री०) वृक्षविशेष, एक पेड़ या काम करे। दरखूत। इसका काष्ठ भवन और साजसज्जाके अधर्मतस्, अधर्मतः ( स० अव्य०) अधर्मसे, झूठ निर्माणमें लगता है। अधश्चर (सं० पु०) अधः अधोभागे खनित्वा अधर्मदण्डन (सं० लो०) अधर्मका दण्ड, बेइन्साफी चरति गृहं प्रविशति, चर्-अच्। सेंध लगानेवाला चोर। अधर्ममय (सं• त्रि०) अधर्मः प्रकृतः, प्राचुर्यार्थे अधश्चौर (सं० पु०) अधः अधोभागे खनित्वा चोरयति मयट। तत्प्रकृतवचने मयट् । पा ५।४।२१। पापमय, प्रचुर चोर एव स्वार्थे अण् । सेंध मारनेवाला चोर, जो पापयुक्त, पापपूर्ण ; लामजहब, जो बहुत बुरा काम मकानको दीवार काटकर चोरी करे। करे। (स्त्री.) अधर्ममयौ। पहले भारतवर्षमें सभी विद्याओंको विशेष रूपसे अधर्मात्मन् (सं० त्रि०) अधर्मः प्रधानः आत्मा यस्य । उन्नति हुई थी। लोग कहा करते हैं, 'यदि मार अत्यन्त अधर्माचारी, महा पापिष्ठ, दुराचारी, कुमार्गी, न पड़ती, तो चोरी जैसा कोई रोजगार न था।' जिसके हृदय में पाप भरा हो; इजाबसे भरपूर । उस समय इस देशमें चोरविद्याकी भी विशेष उन्नति अधर्मास्तिकाय (सं० पु०) अधर्मका विभाग, ईजाब देख पड़ती थी। चोर कितना ही हिसाब-किताब की मद। जैनशास्त्र में जो छः द्रव्य माने गये हैं, उनमें बना वैज्ञानिक उपाय द्वारा गृहस्वके घरमें सेंध लगाते मूठ, बेइन्साफोसे। की सजा।