पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३६

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1 अकालमृत्यु आयुर्वेद शास्त्र में निषिद्ध कही गई है यानी जिसका पिण्ड नहीं छोड़ती। इसीसे शास्त्रने महापातकज, दोष केवलमात्र आयुर्वेदमें देख पड़ता है, उसे अतिपातकज प्रभृति व्याधियोंका नाम निर्देश कर दृष्टार्थक, जो धर्मशास्त्र में निषिद्ध हुई है और जिसका कहा है, कि यह व्याधियां होनम हो यथाविधान आयुर्वेदमें कोई उल्लेख नहीं, उसे अदृष्टार्थक, और पापक्षयके लिये पायश्चित्त करने का अनुष्ठान करें। धर्मशास्त्र और आयुर्वेद इन दोनों शास्त्रोंमें जो प्रायश्चित्त द्वारा पापक्षय होनेपर व्याधि भी आरोग्य निषिद्ध मानी गई है, उसे दृष्टादृष्टार्थक कहते हैं। यह हो सकती है। तौनो निषेध परिवर्जन करना चाहिये। इसतरह सुथु तमें लिखा है, कि मनुष्यको आयु एक सौ एक आचरण रखना भला नहीं, कि यह काम हम करेंगे वर्षकी होती है। इसके बीच सो तरहको अकाल- और यह न करेंगे। इन्द्रियके अनिग्रहके विषयमें मृत्यु है। यह अकालमृत्य आगन्तु मृत्यु के नामर्स यह बात है, कि शास्त्रमें जैसा इन्द्रिय सेवनका विधान अभिहित है। इसे छोड़कर कालमृत्य होती है। है, वैसा इन्द्रियसैवी होने और आलस्य और दूसरे जीवके हाथमें इस कालमृत्य से बचने का कोई दोषके न रहनेसे मनुष्यको अकालमृत्यु नहीं होती। उपाय नहीं। मनुष्यको कौन चलाय: यह काल- जो लोग इन बातोंको न मान काम करते हैं, मृत्य ब्रह्मादि देवताओंको भी आयु पूरी होनेपर मं- उन्हींको अकालमृत्यु होती है। याज्ञवल्क्यजीने हार किया करती है। इसलिये प्राणमंहारके वास्ते भौ लिखा है, कालमृत्यु अवश्यम्भावी है। “वाधारन ह-योगात् यथा दीपस्य संस्थितिः । अचानक कारणोंसे भी अकालमृत्य हुआ करती विक्रियापि च दृष्ट वमकाल प्राणसंशयः ॥ है, जिनमें विषभक्षण, अजीर्ण रहत अत्यन्त भोजन, यथाशास्वञ्च निर्णीतो यथाविधि चिकित्सितः । खराब जगहका जलपान, अतिशय बलवान् शत्रु, न शमं याति थी व्याधिः स ने यो कम्म जो बुधः ॥" व्याघ्र, जंगली भैंसा, और मतवार हाथी प्रभृतिसे युद्ध, कोई-कोई कहते हैं, कि आयु रहते मनुष्य कभी सांपके साथ खेल, बहुत ऊंचे वृक्षका आरोहण, नहीं मरता ; किन्तु यह बात नितान्त भ्रममूलक है। दोनो हाथों से महानदीका मंतरण, अकेले रातको कारण प्रत्यक्ष देखने में आता है, कि तेल, दीवट और दुर्गम पथमें गमन आदि प्रधान है। आकस्मिक बत्ती ठोक रहनसे दीपक जलता है, एकाएक यदि मृत्य से जीव अकालमें हो कालके गाल में जाता है। ऐसे ही कालमें प्रबल वायु आ पहुंचे,तो तेल आदि रहते जैसे, तेल-बत्ती रहत भी जलता दीपक प्रबल वायु- भी जैसे दीपक बुझ जाता है, वैसेही आयु रहते भी वेगसे बुझ जाता है, वैसे ही आकम्मिक कारणसे उत्- अशुभकर्मके कारण वह क्षय हो जाती और जीव पन्न हुई मृत्य दुर्निमित्त उपमर्गके प्राबल्यका हेतु अकालमें ही प्राण विसर्जन करता है। मनुष्योंमें रोग परमायु रहते भी प्राणियोंके प्राण नष्ट करती है। होनेका कारण अशुभकर्म है। शास्त्र में लिखा है, कि सुथु तमें लिखा है,-रसक्रिया-विशारद वैद्य और मनुष्य जिन पाप कम्मीद अनुष्ठान करता है, वही मन्त्रणा विशारद पुरोहित यह दोनो यथोक्त रूपम पाप जीवके नरक भोग लेनेपर उसे व्याधि-रूपसे पौड़ा आगन्तु दोषका निराकरण कर अकालमृत्यु रोक दिया करते हैं। पाप ही व्याधिका रूप धारणकर जीव सकते हैं। वैद्यशास्त्र-विशारद वैद्य दिनचया, रात्रि- को कष्ट पहुंचाते और अन्तमें बिना समय उसे मृत्य के चया और ऋतुचयादिमें जैसा आहार, विहारादिका मुहमें झोंक देते हैं। रोग उत्पन्न होनेपर यथा विधान नियम लिखा है, उसीके अनुसार वह वायु, पित्त और उसको चिकित्सा करना पड़ती है। जो व्याधि यथा कफ, धातु और मलका समता-विधान कर जीवके विधान चिकित्सा करनेपर भी नहीं छूटती, उसे क शरीरको रक्षा और दूसरे अनियमित आहार विहा- मज व्याधि कहते हैं। यह व्याधि बिना भोग किये रादि द्वारा दुष्ट वायु, पित्त और कफसे उत्पन्न हुए 1