पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३६०

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प्रविश्य दृष्ट्या अधश्चौर ३५३ थे। मृच्छकटिक एक अति प्राचीन नाटक है। कृत्वा दृष्टा च। अये ज्वलति प्रदीपः। पुनः कर्म तत्वा-समाप्तोऽयं दूसमें सेंध करनेका आश्चर्यमय कौशल लिखा गया है। सन्धिः। भवतु, प्रविशामि। अथवा न तावत् प्रविशामि, प्रतिपुरुष प्रवेशयामि। तथा कृत्वा,-पये न कथित्। नमः कार्तिकयाय। बात यह है, कि शविलक एक विशुद्ध ब्राह्मण-सन्तान अव पुरुषइयं सुप्तम्। भवतु, आत्मरक्षार्य थे; किन्तु मदनिका नामको वेश्याके प्रति उनका हारमुहाटवामि। क्वनु खलु। सलिल' गृहीत्वा क्षिपन् सशङ्कम् । मन लग जानेसे उन्हें धनको आवश्यकता पड़ गई। मा तावत् भूमौ पतत् शब्दमुत्पादयेत्। भवतु एवं तावत् । इदानों परीचे इसी कारण वह दरिद्र चारुदत्तके घर सेंध लगाने किं लक्षामुप्तमुत परमार्थसुप्तमिद' इयम् । त्रासयित्वा परीक्षा च। श्रये पहुंचे। उन्होंने पहले सेंध मार वृक्षवाटिकामें प्रवेश परमार्थसुने नानेन भवितव्यं । तथाहि,- किया और फिर सोचने लगे,- विश्वासीऽस्य न शद्धितः, मुविशदः खल्पान्तरं वर्तते दृष्टिगढ-निमीलिता, न विकला नाभ्यन्तरं चञ्चला। 'वृक्षवाटिका-परिसर सन्धिं कृत्वा प्रविष्टोऽस्मि मध्यमकं तावत गावं सस्तशरीरसन्धिशिथिल' शय्याप्रमाणाधिकं, इदानीं चतुःशालकमपि दूषयामि। तत् कस्मिन्न देश सन्धिमुत्पादयामि । दीपञ्चापि न मष वेदभिमुखं स्वाल्लचासुप्त' यदि ॥" देश: कोनु जलावसेकशिथिलो यस्मिन्न शब्दोभवे- द्वित्तीनाञ्च न दर्शनान्तरगतः सन्धिःकरालो भवेत् । 'मैं बागमें सेंध लगा बीचके महलमें घुसा हूं। क्षारक्षीणतया च लोष्टकक्तशं जीर्ण क्व हयं भवेत्, अब मकानमें सेंध लगाना पड़ेगी। किन्तु मकानमें कस्मिन् स्त्रीजनदर्शनञ्च न भवेत् स्वादर्थसिद्धिश्च मे ॥ किस जगह सेंध लगाई जाती है ? दीवारमें जहां भित्ति परामृश्य नित्यादित्यदर्शनोदकसेचनेन दूषितेयं भूमिः, क्षारक्षीणा हमेशा पानीको चपेट पड़नेसे मट्टी गीली हो गई है, मूषिकोत्करह। इन्त ! सिद्धोऽयमर्थः। प्रथममेतत् स्कन्दपुवाणां सिद्धि- वहां सेंध मारनेसे शब्द न निकलेगा। फिर दूसरी लक्षणम । अब कर्मप्रारम्भ कौमिदानों सन्धि मुत्पादयामि। इह खलु दीवारके बीच में न अड़नेसे गड्डा भी बहुत बड़ा बन भगवता कनकशक्तिना चतुर्विधः सन्ध्य पायो दर्शितः। तद्यथा,-पक्केष्ट- कानामाकर्षणाम्, आमेष्टकानाञ्छेदनं, पिण्ड मयानां सेचनं, काष्ठमयानां जायेगा। दीवार कहां नोना लगनेसे पुरानी और पाटनमिति । तदव पक्के टके दृष्टिकाकर्षणम् तव,- वैकाम पड़ गई है? किस जगह सेंध लगानेसे पद्मव्याकोशं, भास्कर, बालचन्द्र स्त्रियोंसे भेंट न होगी और मेरा काम भी बन वापीविस्तीर्ण, खस्तिकं, पूर्णकुम्भं, जायेगा? तत्कस्मिन् देशे दर्शयाम्यात्मशिल्प', 'इसके बाद दीवारपर हाथ रखकर वह बोला,- दृष्ट्या श्वीयं यदिखायं यान्ति पौराः ॥ तदव पक्केष्ट के पूर्णकुम्भ एव शोभते। तमुत्पादयामि । नमी बरदाय इसी जगह तो रोज, गहरा पानी पड़ता. जिससे कुमारकार्तिकेयाय, नमः कनकशक्तये ब्रह्मण्याय देवाय देवव्रताय, यह जगह नष्ट हो गई; यही जगह नोना लगनेसे नमो भास्करनन्दिने, नमो योगाचार्याय, यस्खाहं प्रथमः शिष्यः। तैन धसकी है। इस जगह चूहेने गट्टा भी बनाया है। जो च गोरीचना मे दत्ता,- हो. इसमें सन्देह नहीं, कि काम ख ब बना है। अनयाहि समालब्ध न मां द्रक्षान्ति रक्षिणः । चोरीके काम निकलनेका यही पहला लक्षण है। शस्त्रञ्च पतितं गावे रुजं नोत्पादयिष्यति । तथा करोति । धिक् कष्टम् ? प्रमाणसूवम् मे विस्म तम ? अां, इद' अब काम शुरू किये देता हूं, किन्तु गड्डा कैसे खोदा यज्ञोपवीतं हि नाम ब्राह्मणस्य महदुपकरणद्रव्यम् । विशेषतोऽधिस्य, जाता है ? भगवान् कनकशक्तिने चार तरहसे सेंध काटनेका उपाय बताया है। पक्की ईटका मकान कुवः।- एतेन मापयति भित्तिषु कर्ममार्ग- होनेसे ईंट उखाड़ कर बाहर निकालना होता; में तेन मोचयति भूषणसम्प्रयोगान् । कच्ची ईटके मकानको ईट काटकर दूर फेंक दी उद्घाटको भवति मन्त्रढ़कपाटे, जाती चिकनी मट्टीके मकानपर पानी डालना दष्टस्व कौटभुजग : परिवेष्टनन । मापयित्वा कर्म समारंभ।' तथा कृत्वावलोक्य च। एक लोष्टाव- पड़ता ; लकड़ीका मकान चौरा जाता है। यह शेषोऽयं सन्धिः । धिक् कष्टम्। अहिना दष्टोऽस्मि । ( यज्ञोपवीतेनाङ्गुलिं |पको ईटका मकान है, इसलिये ईट उखाड़कर "बदा विषवेग' नाटयति।) चिकित्सां कृत्वा स्वस्थोऽस्मि । पुनः कर्म निकाल डालना चाहिये।' ८९