पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३६३

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अधिक-अधिकरण लग इस स्थान में श्रीकृष्णका शरीर आधार है। पहले अधिकता (सं० स्त्री०) ज्यादती, बहुतायत । वही आधार इतना बढ़कर बताया, कि उसमें समस्त अधिकतिथि (सं० स्त्री.) अतिरिक्त तिथि, जो जगत् लीन हो गया था। पीछे नारदके आगमनसे सौर वर्ष पूरा करनेको जोड़ी जाती है। उत्पन्न आनन्द उसी आधारका दूसरा आधेय बना। अधिकदन्त, अधिदन्त ( स० पु०) फालतू दांत जो इस आधयको इतनी प्रशंसा हुई, कि जिस शरीरमें दूसरपर जम आता है। सम्पूर्ण जगत् समा गया था, उसमें भी इसे स्थान अधिक-दिन, अधिदिन (सं० क्लो०) फ़ालतू दिन, न मिला, यह एकबारगी हो उमड पड़ा। जो सौर वर्ष पूरा करनेमें जुड़ता है। युगान्त इत्यादि माघका श्लोक काव्यप्रकाशवाले अधिकन्तु ( स० अव्य.) अधिक-तु। और भी, अधिक अलङ्कारको भांति उद्धृत किया गया है। इससे भी ज्यादा। किन्तु माघको टीकामें मल्लिनाथने उसे अतिशयोक्ति अधिकप्रिय (सं० ली.) त्वक, दालचीनो। अलङ्कार बताकर निर्देश किया है,- अधिकमांसामन् (सं० लो०) आंखका उभरा हुआ "कविप्रौढ़ोक्तिसिद्धातिशयेन खत:सिद्धस्वभेदेनाध्यवसितातिशयोक्ति: स मांस। च मुदामन्तः सम्बन्धोक्त्या सम्बन्धरूप।।' अधिकमास (सं० पु.) कर्मधा। अधिक मास यह श्लोक दोनो अलङ्कारमें अच्छी तरह जो सौर वर्ष पूरा करनेको जोड़ा जाता है, मलमास, जाता है, लौंदका महीना। मलमास देखो। "अहो विशाल भुपाल भुवनवितयोदरम्। अधिकरण ( स० क्लो०) अधि-क-ल्य ट्। आधारोऽधि- माति मातुमशक्योऽपि यशोराशियंदन ते।" करणम्। पा १।४।४५॥ आधार, सहारा। अर्थात्,- व्याकरणमें कर्ता और कर्मको क्रियाका जो आधार अमित राशि यशको यदपि तदपि जगत्-उर बौच । होता है, उसे अधिकरण-कारक कहते हैं। जैसे-कटे पैठि जात नृप देखिये कत है' ऊ'च न नौच ॥ आस्ते अर्थात् वह चटाईपर बैठा है। यहां 'वह' कर्ता यहां यशोराशि प्राधेय है। पहले यह इतनी है। इस कर्ताको वास-रूप क्रियाका आधार 'कट' बड़ी बताई गई, कि इसका परिमाण न किया जा है। इसलिये कट अधिकरण कारकमें प्रयुक्त हुआ सका। फिर त्रिभुवनको आधार मान इतना बड़ा है। पुनश्च-,-स्थाल्यां पचति अर्थात् बरतनमें वह बताया, कि वह इसे धारण कर सका था। भोजन बनाता है। यहां अन्नादि पाक-क्रियाका ६ न्यायमतसे-हेतु-उदाहरण अधिक, अधिक आधार स्थाली है। इसलिये स्थाली अधिकरण हेतु आदिकथन, संबब और मिसालका ज्यादा देना। कारक बन गई है। (क्लो०) ७ आधिक्य, बहुतायत। (अव्य०) "औपी षिको वैषयिको ऽभिव्यापकचे त्याधारस्त्रिधा।" (भट्टोजिदीचित) ८ अधिक मात्रामें, बहुत ज्यादा। आधार तीन प्रकारका है,-१ औपश्लेषिक, अधिकक्षयकारिन् ( स० त्रि०) अत्यन्त विनाशक, २ वैषयिक और ३ अभिव्यापक । किसी अवयवसे बहुत बरबादी करनेवाला। जो संयोग रहता है, उसे औपश्लेषिक आधार कहते अधिकण्टक (सं० पु.) यासक्षुप, दुरालभाविशेष । हैं। यथा, 'कटे आस्ते' अर्थात् वह चटाईपर बैठा है। अधिकतम (सं० त्रि.) अधिक-तमम्। अनेकके किसी विषयको बोध करानेवाला आधार वैषयिक है। मध्य अधिक, अत्यन्त उत्कृष्ट ; सबसे ज्यादा, यथा, 'मोक्षे इच्छास्ति' अर्थात् मोक्षपानेको उसको निहायत उम्दा। इच्छा है। तात्पर्य यह, कि मोक्ष उसकी इच्छाका अधिकतर (सं० त्रि०) अधिक-तरप्। दोके मध्य विषय है। जहां आधारमें आधेय वस्तु सम्पूर्ण रूपसे एकसे अधिक, दोमें एकसे ज्यादा। व्याप्त रहती, वहीं अभिव्यापक होता है। यथा, 'दुग्धे-