पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३६४

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अधिकरण-अधिकर्म ३५७ च। पा ५३२४३ । यथा माधुर्यमस्ति' अर्थात् दूधमें माधुर्य विद्यमान है। यहां अधिकरणता (स. स्त्री०) अधिकरण-तल् । अधिकरणमिति माधुर्य गुण समस्त ही दुग्धमें व्याप्त हो रहा है। वोप प्रतीसिसाथिको धर्मविशेषः । (मीमांसा) न्याय-मतसे-प्रतीति- देवके मतसे आधार चतुर्विध है-सामीप्याले षविषयैापत्या साक्षिक धर्मविशेष। 'घटवत् भूतले' इत्यादिसे धारचतुर्विधः । सामीप्य, आश्लेष, विषय और व्याप्ति । भूतलमें घटको अधिकरणता समझ पड़ती है। सामीप्यका अर्थ समोपका भाव है; यथा, 'गङ्गायां अधिकरणभोजक (सं० पु०) न्यायाधीश, हाकिम, जज। घोषः' अर्थात् गङ्गाके समीप या लक्षणहारा किनारेपर अधिकरणमण्डप (सं० लो०) न्यायालय, अदालत, घोष रहता है। आश्लष एकदेशसम्बन्धको कहते हैं; कचहरी। यथा, ‘कानने वसति' अर्थात् वनके एकदेशमें रहता अधिकरणविचाल (सं० पु.) अधिकरणस्य विचाल: है। किसी वस्तुको आसक्ति विषय होती है ; यथा, अन्यथाकरगाम्, वि-चल-घञ्; ६-तत्। अधिकरणविचाल 'धने स्प हा' अर्थात् उसे धन पानेकी बड़ी लालसा १ ट्रव्यको अवस्थान्तर देना, है। जब एक पदार्थ दूसरेमें रहता, तब व्याप्ति चौजको हालतका बदलना। २ संख्यान्तरका करना, समझी जातो है ; यथा, 'सकले स्थितः' अर्थात् वह अददका घटाना-बढ़ाना। यह एक राशिको भाग सकल जगत्में व्याप रहा है। अधिकरण-कारकमें करना किंवा अनेक राशिको एक भाग बनाना है। सप्तमी-विभक्ति होती है। सप्तम्यधिकरण च । पा २।३।३६ । जैसे यदि एक राशिक पांच भागका एक भाग बना, न्यायमतमें यह विषयादिप ञ्चाङ्गका विवेचनात्मक तो अधिकरणका संख्याविचाल हुआ। शास्त्र है,- काशिका,- "विषयो विशय व पूर्वपक्षस्तथोत्तरम् । “अधिकरणं ट्रन्यं, तस्य विचाल: सग्ल्यान्तरापादनम् । एक राशिं पञ्चधा निर्णयश्चेति पञ्चाङ्ग शास्त्रेऽधिकरणं स्म तम् ॥" कुरु, अष्टधा कुरु ; पने कमेकधा कुरु।" विषय, विशय, पूर्वपक्ष, उत्तर और निर्णय-इसी अधिकरणसिद्धान्त (सं० पु०) यस्वार्थस्य सिहो जायमानायामेवान्यस्य पञ्चाङ्गको अधिकरण कहते हैं। पञ्चाङ्गका विस्तृत प्रकरणस्य प्रस्तुतस्य सिद्धिर्भवति सः । गौ० ब० ॥३० । न्यायमतस- विवरण इसतरह है,-१ विषय-अर्थात् विचारके अन्य प्रकरणको सिद्ध करनेवाली सिद्धि, जिस सिद्धिसे योग्य वाक्य, २ विशय-किसीके अर्थ निश्चय न होनेका दूसरी सिद्धियां भी मिल जायें। संशय, ३ पूर्वपक्ष-प्रकृत अर्थका विरोधी तर्क, अधिकरणिक (सं० पु०) अधिकरण-ठन्, अधि- ४ उत्तर-किसी विषयका सिद्धान्त करनेपर उसके करणं धर्माधिकरणं आवयतया अस्ति अस्य । विचार अनुकूल तक और ५ निर्णय-महावाक्यके तात्पर्यका करनेके निमित्त धर्माधिकरण मण्डपमें नियुक्त प्राड्. निश्चय । "एवं क्रमेण विवेचनमत्राधिक्रियते इत्यधिकरणम् ।”(तिथ्यादितत्त्व) विवाक, विचारपति, मुनसिफ, सदराला, जज। उक्त पञ्चाङ्गके विचारसे इस विषयादि-विवेचन-शास्त्रका अधिकरणैतावत्व (सं० क्लो०) नौचेके आधारका नाम अधिकरण पड़ा है। नियत परिमाण, नौचेको तहको बंधी हुई मिकदार। अधिक्रियतेऽर्थाविचारोऽस्मिन्बनेनेति वा अधि- अधिकरण्य (स० क्लो० ) अधिकार, बल ; इखूति- करणम्। वेदविचारात्मक ग्रन्थमीमांसा विशेष भी यार, जोर। अधिकरण है। यह दो प्रकारका होता है,-कर्म- अधिकर्म, अधिकर्मन् (स० अव्य०) कर्मणि विभक्त्यर्थे मीमांसा और ब्रह्ममीमांसा। जैमिनि-प्रणीत कर्म अव्ययौ• वा अच् समासान्त। १ कर्माधिकृत, सच्चे मीमांसा ही कर्मकाण्डके ब्रह्मविचारका ग्रन्थ है। इसे (लो) अधिकं कर्म प्रादि-स। पूर्वमीमांसा भी कहते हैं। फिर, वेदव्यास-प्रणीत २ अधिक कर्म. बड़ा काम। ३ पर्यवेक्षण, देख-भाल । ब्रह्ममीमांसा ब्रह्मकाण्ड-वेदविचार-ग्रन्थ है। यह उत्तर (त्रि.) बहुव्री०। ४ अधिक कर्मयुक्त, बड़े काममें मौमांसा कहलाता है। कामसे। फंसा हुआ।