पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३७

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अकालमेघोदय-अकाली और मृत्युके हेतुभूत जो रोग उत्पन्न होते हैं, रसज्ञता- यद्यपि शिक्षाका मर्म अकालियों में प्रस्तुत था,परन्तु पूर्ण प्रयुक्त मृत्युञ्जय-रसादि द्वारा वह सब रोग विनष्ट कर रूपसे इस सम्प्रदायको व्यक्त करनेवाले गुरु गोविन्द नेमें समर्थ हुआ करते हैं। मन्त्रणा-विशारद पुरोहित, ही हुए। यह लोग नितान्त मूर्ख और धम्मान्ध थे,सदा सुमन्त्रणा प्रदानपूर्वक मृत्युके हेतुभूत विकारादि यानी लूट-मार करते फिरना इनका प्रधान काम था। बलवत् विग्रहादिसे निवृत्त कर अपने यजमानों की काली शिरसे पैरतक हथियारोंसे सजे रहते थे। दो अकालमृत्यु निवारण किया करते हैं। इस बातसे तोड़ादार बन्दूके कन्धोंमें और दो दुधार खांड़े कमरमें यह बताया गया है, कि जीवको आकस्मिक मृत्यु लटकाते थे, सिरपर मोटी पगड़ी होती थी ; पगडोके कालमृत्युको तरह अवश्यम्भावो नहीं होती। चेष्टा भीतर फांस (पाश) और लोहचक रहता था; छातीपर करने पर अनायास ही अकालमृत्यु रोकी जा सकती कवच, कमरमें पिस्तौल, किरिच, चक्र और फिंगकल; है। पातञ्जलादि योगशाखमें भी देखने में आता है, कि कमरको बाई ओर बळ ; पीठपर ढाल ; पदतलसे जो लोग जितेन्द्रिय हो योगसाधन करते, वह जितने घुटनों तलक लोहेके पांबठे धारण करते थे। कानों में दिन चाहते, उतने दिन जी सकते हैं। उनको मृत्यु कुण्डल, बाहोंमें लोहेके बाजूबन्द पहने सदाही चित्र- रोगसे नहीं होती। वह इच्छा करनेसे योग द्वारा ही विचित्र नौल वस्त्रोंसे सुसज्जित रहते थे। इन लोगोंका शरीर छोड़ सकते हैं। प्रधान देवालय अमृतसरमें है। इसके अतिरिक्त विशेषतः अकालमेघोदय (सं० पु०) अकाले असमये मेघानामुदयः पञ्जाब और साधारणतः समस्त भारतमें इनको कितनी प्रकाशः, ६-तत्। कुहरा। बिना समयके मेघोंका हो सङ्गतें (मन्दिर) हैं। इनके मन्दिरोंमें कोई प्रति- दिखाई देना। मूर्ति नहीं होती, केवल धर्म-ग्रन्थको ही पूजा अकालिक (सं० वि०) असामयिक, बिना समयका, और पाठ इनकी प्रधान उपासना है। यह लोग पक्रकेश बेअवसरका। रखते और उनकी बड़ी प्रतिष्ठा करते हैं। सब समय अकाली-पञ्जाबादि अञ्चलके महाबली सिखोंका सम्प शरीरपर लोहा होना धमानुसार बहुत आवश्यक दाय विशेष। यह लोग ईश्वराराधनके समय अकाल है। हाथों में लोहेके कड़े और शिरपर चक्र रखना पुरुषको पुकारते हैं, इसीसे सम्प्रदायका नाम भी अनिवार्य है। संसारके सब पदार्थों में तमाखूसे इनको अकालौ पड़ गया है। गुरु नानकदेवने अपने बड़ी घृणा है। तमाखू पौनेसे अकाली पतित हो जपजीमें लिखा है, 'अकालमूर्ति योनिसे भङ्ग । यही जाता है, क्योंकि यही इनके धर्ममें अत्यन्त अपवित्र मूल कारण है कि, सिख लोग अकाल-पुरुषका जप मानी गई है। मद्य और अफीमको यह लोग विशेष करते हैं। भूमण्डलमें इस प्रकारको दुः अपवित्र नहीं समझते और सुखसे सेवन किया साहसी पराक्रमी जाति दूसरी बहुत कम होगी। करते हैं। गुरु तेगबहादुरके पुत्र और उत्तराधिकारी गुरु गोविन्द महाराज रणजिसिंह भी अकालियोंसे डरकर और महाराज रणजिसिंहके समय इन्हीं अकालियोंके चलते थे। दो-तीन बार उनको अकालियों के हाथों प्रतापसे पञ्चनद (पञ्चाब) प्रदेश कांप उठा था। इन विपद्ग्रस्त भी होना पड़ा था। किन्तु महाराज रण- लोगोंमें मृत्युका भय था ही नहीं, विपद्को यह लोग जिसिंहका इतना पराक्रम केवल अकालियोंके ही विपद् समझते हो न थे। क्योंकि गुरु नानकदेव सच्चे बल था। इसी सम्प्रदायको सहायतासे एकबार अंग- और पक्के वेदान्ती थे, उनका विश्वास था कि, आत्मा रेजों ने भी काबुल-युद्धमें जय प्राप्त की थी। अमर है, मृत्यु मिथ्या और कल्पित शब्द है और सुख सिखोंके साथ अंगरेजों का युद्ध हुआ, तब सोवाओन, दुःख केवलमात्र मनोकल्पित भावना है। इसी शिक्षाको महाराजपुर, चिलियानवाला प्रभृति स्थानों में अका- दृढ़ता देखकर गुरुगोविन्दने उनका आश्रय लिया। लियोंने असीम वीरता दिखलाई थी। जब