पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३८

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अकालीम-अकोक अकालीम (अर० पु०) इकलोम शब्दका बहुवचन है। (पु०) संग्रहत्यागी,परिग्रहत्यागी,कमीशून्य, जिम भोगनेके देशसमूह। मुसलमान भूगोलवेत्ताओंके मतसे पृथ्वी लिये कुछ कम्म न रह गए हों। जैन-मतानुमार मम- का केवल चतुर्थांश मनुष्यके वासोपयोगी है। इसी ताकी निवृत्ति, दम प्रकारकं माधु धम्मों में में एक । चतुथांशको 'रू-इ-मस्कन' कहते हैं। इसी चतुथांश अकिञ्चनता ( मं० स्त्री० ) अकिञ्चन तन्। अकिञ्जनम्य- भूमिको यह लोग 'हफ्त इकालीम' अर्थात् मात भावः । दारिद्रा। योगाभ्याममें मयतयोगोको अर्थ- देशों या राज्यों में विभक्त करते हैं। स्मृहाशून्यता। "दह दरबेश दर गलीम बुखम्पन्द । अकिञ्चित्ज्ञ (मं० त्रि०) न किञ्चित्-जा क। न किञ्चित् व दो बादशाह दर इकलोमे न गजन्द ॥' (शादी) जानातीति। अज्ञ। ज्ञानशून्य । अर्थात् दस साधु एक कमलीमें सो रहते हैं, किन्तु अकिञ्चित्कर (सं० वि०) किञ्चित् क अच् । निष्प योजन। दो राजा एक राज्यमं नहीं समा सकते। अकर्मण्य । अकिञ्चिनकर मामग्रो-मामान्य द्रव्य । अकिल (हि. स्त्रो०) अरबी अलका अपभ्रंश । "हफ्त इकलीम गर बैगीरद बादशाह । हम तुमी दर फिक्र इकलीमे दीगर ॥” (शादी) अकिलबहार (हि. पु०) अरबो "अक कुन बर" वैज- अर्थात् जो राजा सातो बादशाही ले चुके, तो भी यन्तीका पौधा या दाना। वह उसीतरह और बादशाही लेनको चिन्तामें अकिल्विष (मं० वि० ) न किल्विप। किल्विषशू च । लगा रहता है। पापशून्य। अकाव (हि. पु०) अक, आक, मदार। अकोक (अ० पु.) एक प्रकारका चमकदार पत्थर । अकास (सं० आकाश ) आकाश देखो। यह कई रङ्गका होता है। भारतम कई प्रकारक पत्थर अकासकृत (हि० पु०) आकाशकृत । बिजली। अकीक नाममे विख्यात हैं। इनक अङ्गरंजी नाम कार अकासदिया (हि. पु.) आकाशदीपक, वह दीपक नलियन ( Curneliun ), अगट । ... ), श्रोनिक्स या लालटेन जो बांसके सहारे आकाशमें लटकाई (Onyx) इत्यादि । पालिम करनम यह पत्थर देवर्नमें जाती है। बड़े सुन्दर हो जाते हैं। जन्नपृण मंधक ममान श्यामल कामनीस (हि. स्त्री०) आकाशनिम्ब,एक पेड़ जिमको '; कुक्क मफ दी लिय और दम मर्फ दकि पत्तियां बहुत सुन्दर होती हैं। मङ्ग थोड़ी-थोड़ी नोलरंगको आभा मिलो हाता है। अकासबानी (हि. स्त्री०) आकाशवाणी । इन सब रङ्गकि माथ कई प्रकारक बन्न,बट, पत्ता, फूल, अकासबल (हि. स्त्री०) अमरवेल, अंबरबलि आकास- कढ़े होते हैं। इतनी बातांक होत भा यह पत्थर बहु- बोर। जैसे, यह बैल माढ़े न चढ़ेगी। मूल्य नहीं होता। इमको छोटा-कोटा कटोरियां, अकिञ्चन (सं० त्रि०) नास्ति किञ्चनं किञ्चिदपि यस्य । डब्बियां, बोताम, कागज काटनको करियां, छरोक दस्त मयूरव्यंसकादि तत्पुं। दरिद्र । निर्धन । जिसके कुछ प्रभृति अनेक चार्ज बनती हैं। बङ्गाल प्रान्त के राजमहन्न, भी न हो। मयूरव्य सकादयश्च । पा०२।१।१२। मयूर- छोटानागपुर और अन्यान्य पहाड़ी स्थानांमं यह पाया व्यंसकादि कतिपय शब्द निपातनसे सिद्ध होते हैं। जाता है। पश्चिमोत्तर-प्रान्तकं बांदा जिले में, मध्य- यह सब तत्पु रुष समास हैं। व्यंसक शब्दका धूर्त अर्थ देशक जबलपुरम, बम्बई प्रान्तकं बाकान्त, रतनपुर, है। मोरको भांति धूर्त, सो मयूरव्यंसक । अन्य राजपीपला और खम्भातमं यह बहुत होता है। भारत- शब्दों के साथ इन सब शब्दोंका फिर समास नहीं वर्षके और भो दूसरे स्थानीनं यष्टिरुपम मिलता है होता। यथा, परममयूरव्यंसक-इस प्रकार पुनर्बार बहुत प्राचीन काल में भारतवासी अकीक पत्थरको समास करना निषेध है। (परममयरव्यंसक इति नाना प्रकारको चीजें बनाकर बाहर भेजा करते थे। समासान्तरं न भवतीति जयादित्यः ।) उस समय यूनान और रोमवाले बम्बई आकर इसी पाण्ड र वर्ग -