पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३८६

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अध्वर्यु -अन् ३७६ था। वह उद्गाता रहे, उच्चैःस्वरसे सामगान इसका कितना हो आभास मिलता है। उन्होंने करते थे। अपने वाहुसे फिर उन्होंने होता और अधूर्यु । 'अब्राह्मण' शब्दको व्याख्यामें इसका अर्थ 'स्तोत्रहीन' निकाले।' लगाया है। यह भी देखा जाता है, कि ऋमन्त्रोंमें यह बड़े ही पेचकी बात है। प्रभुने जिन ब्रह्माको अनृच् और अब्राह्मण दोनो शब्द एक ही प्रकारके मुखसे उत्पन्न किया था, वही सामवेदके गायक अर्थमें प्रयुक्त हुए हैं। हुए। फिर जो अधुर्यु अर्थात् यजुर्वेद के पुरोहित रहे, अध्वर्यु क्रतु (सं० पु०) अध्वर्युवेदे यस्य क्रतोविधान प्रभुने उन्हें अपने बाहुसे बनाया था। यह बात सोऽध्वर्युक्रतुः। अश्वच॑ ऋतुरनपुसकम् । पा २।४।४। यजुर्वेद- कहनेसे ब्रह्मा और यजुर्वेदके पुरोहित दोनो पृथक् विहित यज्ञ, जिसे अध्वयं कराते हैं। श्रेणीके हो जाते हैं। जो ब्रह्मा हैं, वह अधुर्य अध्वर्युवेद (सं० पु० ) यजुर्वेद, जिसे अध्वर्यु पढ़ते हैं। या यजुर्वेदके पुरोहित नहीं। ऋग्वेद और अथर्ववेदके अध्वशल्य (सं० पु० ) अध्वनि पथि शल्यमिव आचर- पुरुषसूक्त में लिखा है, कि पुरुषके वाहुसे राजन्यको तौति, ततोऽच् । अपामार्म, लटजीरा, चिचड़ा। उत्पत्ति हुई थी। फिर यहां लिखते, कि प्रभुने अध्वशोष (सं० पु०) मार्गश्रमजन्य शोषरोग, राहको अपने बाहुसे अधूयं उत्पन्न किये हैं। इससे यही थकावटसे पैदा हुई सूखेकी बीमारो। सन्देह होता है, कि राजन्य और अध्र्यु एक ही "अध्वप्रशोषो सस्तारः संभृष्टपरुषकृविः । श्रेणीके लोग हैं। निरुक्तमें देखिये,- प्रमुप्तगावा वयवः शुष्ककमगलानलः ॥" (निदान) "तिस एव देवता इति नेरुक्ताः । अग्निः पृथिवीस्थानो, वायुवा 'जिसे राह चलनेको थकावटसे सूखेकी बीमारी इन्द्रो वा इन्तरिक्षयानः। सूर्यों द्युस्थानः। तासां महाभाग्यात् एकैकाना लगती, उसका अङ्ग ढीला पड़ और चेहरे का रङ्ग मपि बहूनि नामधेयानि भवन्ति । अपि वा कर्मपृथक्त्वात् यथा,-होता- उड़ जाता है। वह अपने हाथ-पैर नहीं उठा सकता ध्वयं ब्रह्म उद्गाता इत्यपि एकस्य शताः । अपि वा पृथगेव स्थः। पृथग और उसका गला और मुंह सूखता है।' हि स्तुत्यो भवन्ति तथाऽभिधानानि"। (५) 'नरुक्तोंके मतसे देवता तीन हैं। पृथिवीमें अग्मि, अध्वसिद्धक (सं० पु० ) सिन्धुवार वृक्ष, सम्हाल । अन्तरीक्षमें वायु या इन्द्र और द्युलोकमें सूर्य रहते हैं। अध्वस्मन् (सं० त्रि०) ध्वन्स-मनिन्-किच्च, ततो नञ्- उनके माहात्मयानुसार एक-एक देवताके अनेक नाम बहुव्री०। १ ध्वंसरहित, लाज़वाल ; जिसका कभी हुआ करते हैं। अथवा जैसे पृथक् कर्मसे होता, नाश न हो। २ न गिरानेवाला । ३ प्रशस्त, खुला। अधुर्यु, ब्रह्मा, उद्गाता प्रभृति अनेक नाम पड़ते, वैसे अध्वाण्डशात्रव, अध्वान्तशात्रव (सं० पु. ) श्योनाक- ही देवताओंके भी अनेक नाम निकलते हैं। यदि वृक्ष, श्योना ; अरलू । यह वृक्ष अन्धकारमें फूलता है। ऐसा नहीं, तो सभी पृथक् मानना पड़ेंगे ; क्योंकि अध्वाति (वै० पु० ) अध्वानमतति, अत-इ ; ६-तत् । उन सबके स्वतन्त्र नाम रहे और सब पृथक् स्तवनीय पथिक, मुसाफ़िर बटोही। अध्वान्त (वै० क्लो) १ सन्ध्या, गोधूलि । २ अन्ध- निरुतका यह वाक्य देखनेसे बोध होता है, कि कार, तारोकी। ब्रह्मा, अधुर्य प्रभृति भिन्न-भिन्न नाम केवल कार्यभेदसे अध्वायन (सं० लो० ) अवनि अयनं गतिः । यात्रा, रखे गये हैं। ऋषि जो सकल बेदमन्त्र बनाते उनका सफर, राहका चलना। अलग-अलग नाम पड़ता था। जैसे,—ऋच्, उक्थ, अन् (सं० अव्य०) १ नहीं, न। संस्कृतमें यह स्तोम, अर्क, वाच्, वाचस्, ब्रह्म, गौर, मन्त्र, सूक्त, धी, खरसे आरम्भ होनेवाले शब्दोंके आदिमें आता और मति, नीथ, निविद् इत्यादि। इसीसे ज्ञात होता है, इन्कारका मतलब रखता है। हिन्दी में इसके अन्तका कि जो ब्रह्म अर्थात् वैदका गानविशेष रचते या उसके नकार सस्वर हो जाता है। (सं० क्रि०) २ सांस स्तोत्रको गाते, वह ब्रह्मा कहाते थे। सायणके वेदभाष्यमें लेना, हांफना, सरकना; जाना या जीना।