पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३८८

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अनगढ़-अनङ्ग ३८१ ३ निर्मल, अनगढ़ (हिं० वि०) १ न गढ़ा गया। २ किसीका १ श्मशानके अग्निसंस्कारसे शून्य, जो चितापर न बनाया नहीं, स्वयम्भू। ३ भद्दा, वेडौल । ४ असंस्कृत, जलाया गया हो। २ अग्निसे दग्ध नहीं, आगसे अनाड़ी। ५ आदि-अन्त-रहित, जिसका ओर छोर न जला हुआ। (पु.) ३ ब्राह्मणोंके पितृविशेष। न हो। अनघ (सं० वि०) नास्ति अचं यस्य । १ दुःखहीन, अनगन (हिं० वि०) अगणित, बेशुमार। वैतकलीफ़। २ पापशून्य, वेगुनाह। अनगना (हिं० वि०) १ खपरै सुधारना, छप्परके साफ। ४ पवित्र, पाक। ५ मनोज्ञ, दिलकी बात ऊपर उलट-फेर दुरुस्त करना, टपकनेवाले खपरोंको जाननेवाला। ६ सुन्दर, ख बसूरत । (पु.)७ गौर- मरम्मत बनाना। (वि.)२ अगणित, बेशुमार। सर्षप, सफेद सरसों। ८ शिवको उपाधि विशेष । अनगार (स० त्रि०) नास्ति आगारं यस्य, बहुव्री। ८ पापका अभाव, गुनाहका न होना। १ भवनरहित, बेघर। (पु०) परिव्राजक, जो घरमें न अनघरी (हिं० स्त्रो०) कुसमय, बुरा वक्त । रहकर घूमता फिरे। अनधैरी (हिं०बि०) १ जिसे न्यौता न दिया गया अनगारिका (सं० स्त्री०) परिव्राजिका। हो, बैबुलाया। अनगिन, अनगिनत (हिं० वि० ) अगणित, बेशुमार। अनघोर (हिं० वि०) अत्याचार, जुल्म, अन्धेर। अनगिना (हिं० वि०) जो गिना न गया हो; अगणित, अनंत (स० पु०) गौरसर्षप, सफेद सरसों। असंख्य ; बेशुमार, बेहिसाब । (स्त्री० ) अनगिनी। अनङ्कुश (स० त्रि०) १ अङ्कुशशून्य, बेलगाम। अनगेरी (हिं. वि०) १ अन्य, दूसरा । २ अपरिचित, २ उद्दण्ड, वैरोक। जिससे जान-पहचान नहीं। अनङ्ग (सं० क्लो०) नास्ति अङ्ग आकारः अस्य । अनग्न (स० त्रि०) न नग्नम् । विवस्त्र नहीं, वस्त्र १ आकाश, आसमान । २ मन, तबीयत। परिहित ; जो नङ्गा नहीं, कपड़े पहने हुए। भिन्न उपकरण, अज़ोको छोड़ दूसरौ चीज़। (पु०) अनग्नता (सं० स्त्री०) नग्न न रहनेको स्थिति, नङ्गा ४ कन्दर्प, कामदेव, मदन। मदनके अङ्गहीन होनेका न होनेको हालत । कारण इसतरह लिखा गया है, कभी तारकासुरके अनग्ना (स. स्त्री०) कार्पास, कपास । अपनी भयसे स्वर्ग मर्त्य कांप उठा था। वज्रपाणि इन्द्र भौ बोंडी ढंकी रहनेसे कपास अनग्ना कहाती है। उसके सामने जा न सके । उस समय ब्रह्मादि अनग्नि (सं० पु. ) नास्ति अग्निः श्रौतः स्मार्तो वा देवगणने परामर्शकर देखा, 'महादेवके औरससे १ श्रौत-स्मार्त-कर्म-हीन, अग्निशून्य, प्रव्रजित ; देवसेनानौ कार्तिकेय ही जन्म लेकर तारकासुरको अग्निको प्रतिष्ठा न करनेवाला व्यक्ति। नञ्-तत् । शास्ति दे सकेंगे।' किन्तु उस समय महादेव दक्षा- २ अग्नि-भिन्न,आगको छोड़ दूसरी चीज़ । ३ अग्निका लयमें सतीको खो हिमालयपर कठोर तपस्यासे लग अभाव, आतिशको नामौजूदगौ। ४ अग्नि या चूल्हे को गये थे। उनका योग विना टुटे कार्तिकेयका जन्म आवश्यकता न रखनेवाला पुरुष, जिस आदमौको कैसे होता! इसलिये इन्द्रने कन्दर्पको बुला महा- आगकी ज़रूरत न पड़े। ५ अधर्मी, बेईमान शख्स देवका योग तोड़नेको भेज दिया। मदनने हिमालय- ६ क्वांरा, बेव्याहा आदमौ। ७ अग्निमान्धका रोगी, पर पहुंचकर देखा, कि त्रिलोचन महादेवने देवदारु- बदहज़मौका बीमार। वन में व्याघ्रचर्म बिछा निविड़ तपस्या आरम्भ की थी। अनग्निवा (स. क्लो०) न अग्निं वायते रक्षति । कन्दर्पने ज़मीनपर एक घुटना झुका और फूलका अग्निकी रक्षा न करनेवाला व्यक्ति, पापो; जो धनुष कानतक चढ़ा एक वाण छोड़ दिया। उस आदमी आतिशको हिफाजत न करे, गुनहगार। पुष्यवाणके आघातसे शिवजीने घबराकर क्रोधसे आंख अनग्निदग्ध (स. त्रि.) न अग्निना दग्धम् । खोली दी। कन्दर्प उसीसे भस्म हो गये। इससे