पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/४

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२ । आकर दाहिनी ओरसे होती हुई ऊपर मात्रास पा १।१।१४। आ को छोड़कर दूसरा जो निपात मिल जायगी। एकाच हो वह प्रगृह्य संज्ञक होगा। (इससे सन्धि हिन्दू भक्त हैं, उन्हें सम्पूर्ण विश्वमें ईश्वरको विभू न होगी)। प्रया शब्द देखो। तियाँ दिखाई पड़ती हैं। तन्त्रशास्त्रमें अकारसे भी अ—(पु०) विष्णु ( स्त्री० ) डौए ई लक्ष्मी। कहीं ईश्वरत्व दिखाया गया है। इसमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव कहीं अकारसे ब्रह्मका अर्थ ममझा जाता है। और शक्ति विराजते हैं। इसका पञ्चकोण निर्गुण ओंकार देखी। और त्रिगुणात्मक है। वहां पञ्चदेवता और तीनों तन्त्रमें अकारके और भी कितने ही पयाय शब्द शक्तियाँ विराजती हैं। दिखाई देते हैं। जैसे-सृष्टि, श्रीकण्ठ, मघ, कीर्ति, अ (अव्य) अभाव, निषेध, अल्प। नञ् तत्पुरुष निवृत्ति, ब्रह्मा, वामाद्यज, मारस्वत, अमृत, हर, समासमें नकारका लोप होने पर प्रकार रह जाता नरकारि, ललाट, एकमात्रिक, कण्ठ, ब्राह्मण, वागीश, है। *। नलोपो नञः ।। पा६।३।७३। नञ्तत्पुरुष प्रणवाद्य। समासमें शब्द विशेषमें नका इन छः प्रकारोंका अर्थ अ-उ-म, इन तीन बीज वर्णीम प्रणवको उत्पत्ति होता है- है। यहाँ योगसाधनका भी एक गूढ़ भेद छिपा है। तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता। योगियांका कथन है कि मन एकाग्र करनेके लिये अप्राशस्ता विरोधच नञः षट प्रकीर्तिताः ॥ (दुर्गादास ) पहिलो अवस्थामें कभी पूरै ओंकार का उच्चारण न १। उसके सादृश्यमें,-न ब्राह्मणः अबाह्मणः, करना चाहिये। पहिले ओंकारक आदि अक्षर बाह्मणसदृशः। अर्थात् ब्राह्मणके समानको कोई अकारका जप करना चाहिये। उमका नियम दूसरी जाति, क्षत्रिय, या वैश्य । यह है :-पद्मासन बाँधकर उन्नतभावम मोध बैठकर २। उसके अभावमें,-न पापम् अपापम् । मस्तक ठीक सामने की ओर इतना नीचे झुकाना पापका अभाव। चाहिये कि ठोड़ी कलेजमें जा लगे। फिर, कण्ठके ३। दूसरे पदार्थका बोध-न घटः अघटः । नौसे प्लुत अनुदात्त स्वर अकारका उच्चारण करें। घटके अतिरिक्त कोई दूसरा पदार्थ, जैसे पौढ़ा आदि। फिर धीरे धीरे सुरको ऊँचा उठावे और प्लुत उदात्त ४। उसको अल्पतामें,-अनुदरी अर्थात् अल्पो स्वरमें अकारका उच्चारण करें। इस प्रकारस नीचे दरी। जिसका पेट छोटा हो। सुरके अकारसे धीरे धीरे सुरको ऊँचा उठाने पर ५। अप्रशस्त्यभावमें,-न कालः अकालः । अर्थात् उकार आपही उच्चारण होने लगता है। फिर, अप्रशस्त काल, थोड़ा समय आदि। ऊपरस सुर नौचे लानेके समय, स्वरपतन कालमें ६। विरोध अर्थमें, न सुरः असुरः। अर्थात् सानुनासिक अकार आपही उच्चारण में आजाता है। सुरविरोधी। इस तरह के नञ् समासमें बताये हुए इसका संकेत इस प्रकार है :- छः अर्थो में से कोई न कोई अर्थ अवश्य ही लगता आ उ ऊ ॥ ॥ ओम् है। अधिक्षेपमें (तिरस्कार) क्रियापद पर रहने पर जिन्होंने योगियोंके मुंहस प्रणवगान सुना है, वे अर्थात् उपरान्तमें क्रिया आने पर नके स्थानमें ही इस सुरको समझ सकते हैं। अ होता है। *। नजोनलोपस्तिङि क्षेपे। अपचसि पहिले एकान्तस्थानमें ऊँचे स्वरमें इस वीज त्वं जाल्प। (काशिका)। सम्बोधनमें-अ! अनन्त वर्णका उच्चारण करना पड़ता है। इसका अच्छी आगच्छ भोः । अ अनन्त, यहाँ पहिले अकार तरह अभ्यास हो जाने पर, फिर माथा उठाकर धीरे और दूसरे पदके आदिमें अकार है; परन्तु एक धीरे इस मन्त्रका इसतरह जप करना चाहिये कि स्वरके साथ सन्धि न हुई। । निपात एकाजनाङ्। जौभ और होठ तक न हिलें। इसप्रकार के । अ आ