पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/४०६

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अनन्ता-अनन्यज अन्यो यस्य। १४ पृथिवी। 1 अनन्ता (सं० स्त्री०) नास्ति अन्तः सौमा यस्याः, 'अनन्धनारी कमनीयमकम् ।' मतलब यह, कि जिस कोड़की बहुव्री। १ विशल्या ओषधि। २ अनन्तमूल। कामना भी अन्य नारी नहीं कर सकती। नास्ति ३ दुरालभा, लटजीरा। ४ दूर्वा, दूब। ५ हरीतकी, २ जिसके दूसरा कोई नहीं, सबसे ६ आमलको, आंवला। ७ गुडूची, गुर्च। अलग। ३ उदासीन, नाखुश। ४ अनधीन, आजाद । ८ अग्निमन्थ वृक्ष। ८ अग्निशिखा वृक्ष। १० श्यामा. ५ अपना । ६ एकसे अधिक नहीं। ७ समग्र, समूचा। लता। ११ पिप्पल, पीपर। १२ यवास, जवासा। ८ दूसरा प्रयोजन न रखनेवाला। १३ पार्वती। अनन्य-युक्तप्रदेशके एक कविका नाम । इनका जन्म अनन्तात्मन् (सं० पु.) परमेखर जिसका कोई सन् १७३३ ई० में हुआ था। इनके बनाये कितने हो अन्त नहीं। वेदान्त और नौतिके पद लोगोंमें फैल गये हैं। अनन्तानन्द (सं० पु०) अनन्ते विष्णौ आनन्दो यस्य । इन्होंने चेतावनी भी लिखी थी। सम्भवतः यह वही रामानन्दके बारह शिष्यों में एक शिष्य। भक्तमालामें कवि थे, जिन्हें शिवसिंहने अज्ञात समयका बताया इन बारह शिष्योंके नाम लिखे हैं,-१ रघुनाथ, था और जिन्होंने दुर्गाको स्तुति बनाई थी २ अनन्तानन्द, ३ कुवेर, ४ सुखासुर, ५ जौव, ६ पद्मा अनन्यगति (स. स्त्री०) १ पूर्ण स्रोत, पूरा ज़रिया । वत्, ७ पौपा, ८ भवानन्द, रुइदास, १० धन्य, (त्रि.)२ केवल एक स्रोत रखनेवाला, जिसके कोई ११ सेन और १२ सुरसुर। दूसरा जरिया न हो। अनन्त्य (सं. ली.) अनन्तस्येदं यत्। १ हिरण्य- अनन्यगतिक (स• त्रि०) नास्ति अन्या गतिर्यस्य, कप् । गर्भ पद, ब्रह्मपद। (त्रि.) २ असीम, बेहद । अन्य उपाय-रहित, दूसरा ज़रिया न रखनेवाला। ३ सदाका, हमेशावाला। अनन्यगामिन् (सं० त्रि०) दूसरेको ओर न जाने- अनन्द (सं० त्रि०) न नन्दयति, नन्द-खिच्-अच् ; वाला, जो गैरको तर्फ न झुके ।। नञ्-तत् । १ आनन्दजनक नहीं, जो खुश न करे। अनन्यगिरि-मन्द्राज प्रेसिडेन्मौके विजगापटम् जिलेका (वै० पु०) २ किसी नरकका नाम । एक गांव। यह समुद्र-तलसे कोई ३१११ फीट ऊंचे अनन्न (वै० लो० ) न अन्नम्, नञ्-तत् । १ अभोज गलीकोण्डाको पहाडीपर बसा ; जो विजयनगर नौय, जो चीज. खाई न जाये । (त्रि.) नास्ति अन्न और पञ्चौता राज्यको सीमा बनाती है। इस गांव में यस्य, बहुव्री०। २ निरन्न, अन्नहीन ; जिसके पास कोई ढाई हजार आदमी बसते और कहवेके बड़े-बड़े खानको अनाज न हो। बाग़ लगे हैं। अनन्नास (हिं. पु.) आनानास, एक तरहका फल । अनन्यचिन्त, अनन्यचेतस् (सं० त्रि०) अपना सम्पूर्ण यह वृक्ष देखने में रामबांस-जैसा और प्रायः दो फोट ध्यान एक ही ओर लगा देनेवाला, जो अपना ख्याल तक ऊंचा होता है। मूलसे लगभग दो-तीन अङ्गुल एक ही बातपर जमा दे। ऊपर डण्ठलके पास अङ्गुरोंको ग्रन्थि पड़तो, जो धौर- अनन्यचोदित (सं• त्रि.) आप ही आप झुका, जो धौरे स्थूल और दीर्घ होते जाती है। इस ग्रन्थिमें अपने मनसे किसी काममें लग जाये। रस भरा रहता है। खाते समय लोग पहले इसका अनन्यज (सं० पु. ) नास्ति अन्यदयस्मात् सर्ववस्तूनां बकला छौल और आंख निकाल डालते हैं। तदात्मकत्वात् अनन्यो विष्णुः तस्मात् जायते, जन-ड; स्वादमें यह खटमिट्टा होता और भुक्त अन्नको पचा ५-तत्-अथवा न अन्यस्मात् स्वयमेव वयोधर्मेण कर हृदय शीतल करता है। मनसि जायते। कामदेव, जो विषमुके पुत्र हैं या आप अनन्य (सं० त्रि०) न अन्यः, नञ्-तत् । १ अन्य ही आप मनमें उत्पन्न हो जाते हैं। अमरकोषमें भिन्न, दूसरैसे अलग। कुमारसम्भवमें लिखा है, लिखा है, 'कुसुमेषुरनन्धनः।'