पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/४१८

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अनल्प-अनवद्यत्व ३व्याख्या- अनल्प (सं० वि०) न अल्पम्, नञ्-तत् । प्रचुर, जुदा न हो। २ चिह्नशून्य, सोमाविहीन, अनियमित ; अधिक ; ज्यादा, बहुत ; जो कम न हो। बेनिशान, हद न बांधा गया, बेमौताज । अनल्पघोष (सं. त्रि.) अधिक घोषविशिष्ट, अत्यन्त रहित, बेबयान। शब्दायमान ; निहायत पुरशोर, बड़ी आवाजका ; अनवच्छिन्नसंख्या (सं० स्त्री.) अखण्ड राशि, जो आवाज़से बहुत भरा हो। कामिल अदद ; जो गिनती कटी फटी न हो। अनल्पमन्यु (स० त्रि०) अतिशय क्रुद्ध, निहायत अनवच्छिन्नहास (सं० पु.) निरत अथवा अयोग्य गुस्सावर ; जो बहुत नाराज हुआ हो। हास, लगातार या बेहूदा हंसी। अनवकाक्षा ( स० स्त्री०) अभिलाष-राहित्य, अनवट, अनोटा (हिं. पु.) १ पादके अङ्गुष्ठ में उत्कण्ठा-शून्यता; नामर्जी, बेचाही ; इच्छा का न धारण की जानेवाली मुद्रिका, छल्ला जो औरतें पैरके रहना। जैनसाधु जब मरनेके लिये न कुछ खाते अंगूठेमें पहनती हैं। २ ढोका, ढक्कन जो कोल्ह के पौते और न घबराते, तब उनमें अनवकाङ्क्षा विद्य- बैलकी आंखपर बांधते हैं। मान रहती और उन्हें अनवकाक्ष्यमाण कहते हैं। अनवत् (सं० त्रि.) खास अथवा जीवन सम्पन्न, अनवकाश ( स० पु० ) अभावार्थे नञ्-तत् । १ अव जिसकी सांस चलती या जो जीता हो। काशका अभाव, फुरसतका न मिलना। (त्रि.) अनवत्त्व ( स० क्लो०) जीवनसम्पन्न होनेको स्थिति, नञ्-बहुव्री०। २ अवकाशशून्य, बेफुरसत। ३ जो ज़िन्दगी कायम रहनेको हालत । नियोगके योग्य न हो, नाकाम । अनवतप्त (स० पु०) १ जैन मतानुसार एक सर्य- अनवकाशिक (स'० पु०) साधु, जो एक पादसे राजका नाम। २एक हदका नाम, रावणद। दण्डायमान हो तपस्या करे। अनवती-बम्बई-उत्तर कनाड़ाके एक स्थानका नाम । अनवगाह (स त्रि०) अवगाहरहित, अपार ; अथाह, यहां कैटभेश्वरका एक सुन्दर मन्दिर बना, जिसके प्रधान ख ब गहरा ; जिसे कोई तैर या पार न कर सके। मण्डपमें सोलह और आड़की दीवारपर बाईस स्तम्भ अनवगाहिता (सं० स्त्री०) अवगाह-राहित्य, गहराई ; खड़े हैं। इस मन्दिरमें कितनी ही बातें इधर-उधर पार न पाने या तैर न सकनकी हालत । लिखी मिलती हैं,-१ कैटभेश्वरके मन्दिरमें देवमूर्ति- अनवगाहिन् (सं• त्रि०) १ पार न जाता हुआ, से दाहने शक ११५२ (बी); २ मन्दिरके मध्यरङ्गमें न तैरता हुआ। २ जो पढ़ता न हो। एक स्तम्भपर शक ११६३ (बी); ३ दूसरे स्तम्भपर -अनवगाह्य (सं० त्रि०) अवगाहके अयोग्य, तैरनेके शक ११६३ (बी); ४ फिर दूसरे स्तम्भपर शक नाकाबिल ; अथाह। ११७१ (बी); ५-६ मध्यरङ्गके किनारे दो शक, अनवगीत (सं० त्रि०) न अव-गै कर्मणि क्त। अनि जिनमें एक शक ८८२ है; ७ सामनेकी ओर एक न्दित, खुशनाम ; जिसकी बुराई ख़राब गीतोंमें न ८ सामनेवाले पार्वती-मन्दिरके बड़े गायी गयौ हो। लट्टे पर दूसरा शक खुदा है। अनवग्रह (सं० त्रि०) नास्ति अवग्रहः प्रतिबन्धो अनवद्य (स० वि०) म अवद्य निन्दयम्, नञ्-तत् । यस्य, न-बहुव्री। १ प्रतिबन्धशून्य, बेजब्त ; जिसे अवधपण्यवर्या गर्दा पणितव्यानिरोधेषु । पा ११०१ । १ निन्दा- कोई रोक न लगे। (पु०) नञ्-तत् । २ वृष्टिप्रति भिन्न, दोषश न्य ; खुशनाम, बेऐब ; जिसको कोई बन्धाभाव, बारिशको रोकका न रहना। बुराई न करे। २ प्रशस्य, इष्ट ; बेउज, जिसमें कोई अनवग्लापत् (वै त्रि०) आलस्यरहित होता हुआ, बखेड़ा न हो। जो सुस्ती न कर रहा हो। अनवद्यता (सं० स्त्री०) दोषराहित्य, बेऐबी। अनवच्छिन्न (सं० त्रि.) १ अवच्छिन्नतारहित, जो अनवद्यत्व (सं० ली.) अनवद्यता देखो। और दूसरा