पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/४२२

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अनवक्षा-अनशन . अनवेक्षा (सं० स्त्री०) न अवेक्षा अपेक्षा, नञ्-तत् । ५ भोजनशून्य, गिजासे खाली ; जिसने खाना छोड़ अपेक्षाभाव, बेगौरी; ध्यान लगानेको हालत । दिया हो। यह भली भांति स्थिर नहीं हुआ, कि अनव्रत (सं० त्रि.) १ साधुकर्मसम्पन्न, जो कोरी एकबारगी ही निर्जल उपवास करनेसे कितने दिनमें लटकेसे खाली न हो। (पु०) कर्मरत जैन साधु, जो मृत्यु होती है। सालिखेके श्यामाचरण बाबूने काशीमें जैनौ फकीर अपना काम करता रहे। पहुंच अनशनव्रत किया था। अठारह दिन पौधे अनशन (सं० लो०) न-अश-लुपट, नज-तत् । उनको मृत्यु हो गयौ। किन्तु सुस्थ शरीरसे उपवास १ भोजनका अभाव, गिज़ाका न मिलना। २ उपवास । करनेपर बारह दिनसे एक मासतक मनुष्य जी सकता ३ लङ्घन, फाका। ४ भोजन-निवृत्ति-रूप व्रत विशेष, है। किन्तु जो स्वभावतः अधिक भोजन, अधिक खास व्रत जिसमें खाना नहीं खाते। इस व्रतमें रात कायिक परिश्रम करता और नित्य मद्य-मांस खाता दिन कुछ खाया नहीं जाता। अनशनव्रत एक है, उसके पक्षमें यह नियम नहीं लगता। वह दिन, दो दिन, तीन दिन, सात दिन, नौ दिन या क्षुधाको नहीं सह सकता, अल्प उपवास करते हो एक मासतक चलता है। दूसरे प्राणपरित्यागको अवसन्न हो जाता है। चित्तोड़का दुगै जीतते समय इच्छासे जबतक प्राण न निकले, तबतक अनशन विलायती गोरे और हमारे देश मिपाही दोनो लड़ व्रत रहता है,- रहे थे। एकाएक खाद्य ट्रव्यका अतिशय अभाव "अनशनं मासमैकन्तु महापातकनाशनम् । होजानेपर, क्षुधासे जठराग्नि धांय-धांय जलने और नेहनामुभिकं पापं कृतेनानेन तिष्ठति ॥" (जावाल) गोरोंको जगत् अन्धकारमय दिखाई देने लगा। किन्तु 'एक मास अनशनव्रत करनेसे महापातक नष्ट हमारे देशके सिपाही उतने कातर न हुए। जो होता है। इसलिये यह व्रत रखनेसे इहकाल और सामान्य चावल रहा, उसे पका सिपाही आप तो परकालका पाप छूट जाता है।' “प्रायश्चानशने मृत्यौ” मांड खाते और सब भात गोरोंको दे देते थे। उसपर इति विश्वः । प्रायस् शब्दसे अनाहारमें प्राणत्यागका भी गोरे भूखसे कोई काम न कर सके। किन्तु अर्थ निकलता है, सिपाहियोंने केवल मांडके सहारे तुमुल संग्राम संभाला था। "समासको भवेद्यस्तु पातकै महदादिभिः । दुश्चिकित्समहारोगे: पौड़ितो वा भवेत्तु यः ॥ जो निरामिषभोजी, एकाहारी और प्रतिदिन स्वयं देहविनाशस्य काले प्राप्त महामतिः । यथानियम प्राणायाम करता है, उसकी मृत्यु अनशनसे अब्राह्मणं वा खगादि महाफलजिगीषया ॥ शीघ्र नहीं होती। ऐसे-ऐसे अनेक योगी सन्यासी हैं, प्रविशेज्ज्वलनं दीप्त कुर्यादनशनं तथा । जो दिनान्तमें केवल आध सेर दुग्ध पीते हैं। बांकी- एतेषामधिकारोऽस्ति नान्येषां सर्वजन्तुषु ॥ पुरमें एक योगी रहे, जिनका पथ्य दूर्वाटण होता था। नराणामथ नारीणां सर्ववणेषु सर्वदा ॥" ( पुराणवचनम् ) वह नवीन दूर्वा पौस और खाकर प्राण पालते थे। 'जो महापातकग्रस्त या असाध्य रोगसे पौड़ित मतलब यह, कि प्राणायामसे योगनिद्राका आविर्भाव हो, वह महामति व्यक्ति अपने विनाशका काल होता है। उस क्षण कच्छप और सर्पादिवाली शौत- प्राप्त होनेपर ब्रह्मलोक या स्वर्गादि महाफलको निद्राको तरह योगमें रहकर सो सकनेसे क्षुधाका कामना कर प्रज्वलित अग्निमें बैठे या अनशनव्रतको उद्रेक नहीं उठता। साधु हरिदास खास और आहार अवलम्बन करे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र रोक दश मास मट्टीमें गड़े रहे थे। उसे देख इन्हीं चार वर्णके पुरुष और स्त्रीको इसमें अधिकार डाकर मेकग्रेगरने कहा, "इस देशके लोग सहजमें - है। अन्य प्राणीको इसे करनेका निषध देते हैं।' उपवास और प्राणायाम पालनेसे ऐसे अद्भुत कार्य (त्रि.) नास्ति अशनं यस्य, नञ् बहुव्री० । कर सकते हैं।" जो हो; यह बात ठीक नहीं बता