पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/४२७

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असत्, सच्चा नहीं। %3 3B ४२० अनाचारिन्-अनाथ कप। १ आत्मविहीन, बैरूह । २ कर्मका न करना, २ धर्मशास्त्रके बताये कर्मसे विरुद्ध जैन मतानुसार चलना। अनाचारिन् (स० त्रि०) १ कदाचार, बदचलन, अनात्मक-दुःख (सं० लो०) आत्मासे सम्बन्ध न रखने- खराब चालचलनवाला। २ रीति, नौति याव्यवहार वाला दुःख, जिस तकलीफ़का रूहसे कोई सरोकार पर ध्यान न देनेवाला। ३ दुष्ट, बदजात। न रहे। जैन शास्त्रकार इहलोक और परलोक अनाचारी, अनाचारिन् देखो। दोनोके दुःख अनात्मक मानते हैं। अनाज (हिं० पु.) अन्न, धान्य ; गल्ला । अनात्मज (सं० त्रि०) आत्मानं यथास्वरूपं न जानाति, अनाजी (हिं० वि०) अनाजका, गल्लेवाला। ज्ञा-क। आत्माको न जाननेवाला, रूहको पहचानसे अनाज्ञा (सं• त्रि.) आज्ञा न पाया हुआ, जिसे खाली ; जो असली समझ न रखता हो। हुकम न मिला हो। अनात्मधर्म (सं० लो०) आत्माका धर्म नहीं, जो अनाज्ञाकारिता (सं० स्त्री०) आज्ञारहित कर्मका चाल रूहको न हो। कार्य, बेहुक्म काररवाई। अनात्मन् (सं० पु०) न आत्मा, अप्राशस्त्ये भेदार्थे अनाज्ञाकारी (स० पु०) आज्ञाके अनुसार कार्य च नज-तत्। १ आत्म-भिन्न, रूह नहीं; जो चीज़ न करनेवाला, जो हुक्मके मुताबिक काम न करे। चेतन न हो। (त्रि.) २ आत्मारहित, बेरूह; (स्त्री०) अनाज्ञाकारिणी। शारीरिक, जिस्मानी। अनाज्ञात (सं. त्रि०) न आज्ञातम्। ज्ञानका अनात्मनीन (सं० त्रि०) आन्मन्-ख ; आत्मने हित- अविषयीभूत, नजाना हुवा। मात्मनीनम्, न आत्मनोनम्, नत्र-तत्। श्रात्मन् विश्वजन- अनाडी (हिं० वि०) अज्ञानी, नासमझ। भीगोत्तरपदात् खः । पा । निजको अहित, अपने लिये अनाढ्य ( स० वि०) निर्धन, बैदौलत ; दरिद्र, बुरा ; जो आत्माको भला न लगे। गरीब । . . अनात्मप्रत्यवेक्षा (स० स्त्री०) जैन मतानुसार- अनाढ्यम्भविष्णु (स० वि०) धनिक न बनता हुवा, आत्माको अनुपस्थितिका विचार, रूहके न रहनका दौलतमन्द न होनेवाला; जो गरीब होते जा खयाल। रहा हो। अनात्मवत् (सं० त्रि.) न आत्मा अन्तःकरणं वश्य- अनातङ्क (सं० त्रि०) अरोगी, नाबीमार। वेन अस्ति अस्य: मतुप-मस्य वः, न-तत्। अनातत (स. त्रि०) धनुषाकार न फैला या फंसा १ अजितेन्द्रिय, अपने काबू.का नहीं। (अव्य०) हुवा, जो कमानकी तरह फैला या फंसा न हो। २ अपने विरुद्ध, रूहके खिलाफ। अनातप (सं० पु०) अभावार्थे नञ्तत् । १ आतप- अमात्मा (सं० क्लौ०) आत्मन इदम् आत्मन् यत् आत्मा का अभाव, गर्मीका न रहना। २.छाया, साया। न आत्माम्, नञ्-तत्। तस्येदम् । पा ४।३।१२० ।। ३ शीतलता, ठण्डापन । (त्रि.) बहुव्री०। १ आतप १ अपने निज परिवारके लिये प्रेमका अभाव, अपने शून्य, तपिशसे खाली। खास खानदानपर मुहब्बतका न होना। (त्रि.) अनातुर (सं० वि०) न आतुरम्, न -तत्। २ अपना नहीं, अपनेसे ताल्लुक न रखनेवाला । आतुरभिन्न, सुस्थ ; नाबीमार, लाचारीसे अलग, अनाथ (सं० वि०) नास्ति नाथः प्रभुरस्य । १ प्रभुः तन्दुरुस्त। हीन, वैमालिक ; जिसका कोई रखवारा न रहे। अनात्म (सं० वि०) १ आत्मश न्य, बेरूह । (क्लो.) २ रहित, महरूम। ३ लावल्द, बेबाप । ४ गरीब, २ आत्मासे विरुद्ध वस्तु, जो चीज़ रूह न हो। बेचारा। ५ यतीम, लावारिस । ( वै० ली.) 'अनामक (सं० वि०) नास्ति आत्मा स्थिरो यत्र, १ रक्षाका अभाव, हिफाजतका न होना । शरीरम् ; नीरोग,