पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/४९९

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४६२ अनुवत्सर-अनुवाचनप्रेष लहका हवाला रखनेवाला, जो दुहराये जानेसे हुवा, लपेटा हुवा। २ संलग्न, लगा हुवा, जो फंसा हो। ताल्लुक रखे। अनुवत्सर (सं० पु०) अनुकूलो वत्सरी दानादि अनुवह (स• पु०) अग्निको सात जिह्वामें एक । विशेषाय। १ वर्ष, साल। २ ज्योतिष में पांच | अनुवा (हिं• पु०) १ पेंढी, जिस जगह खड़े हो वत्सरके युगका चतुर्थ वर्ष। विष्णुपुराणमें लिखा कुयें से जल निकालते हैं। २ चोंडा, जो गड्डा पानी है,-सावन, सौर, चान्द्र और नक्षत्र–इन्हीं चार पौनेको खोदा जाता है। ३ चौना, जिस जगह प्रकारके माससे वत्सर-गणना गंठती ; इन्हीं चार तालाबसे बेंडीमें पानी भर खेत सींचते हैं। प्रकार मासके समन्वयसे पांच वत्सरका युग बंधता अनुवाक (सं० पु०) अनुच्यते, अनु-वच्-घञ् । १ वेदका है। इस युगके प्रथम वत्सरको संवत्सर, द्वितीयको अंशविशेष, ऋविशेष । २ पश्चाद्वचन, पीछेका बोल, परिवत्सर, ढतीयको इद्दत्सर, चतुर्थको अनुवत्सर रट. दुहराव, पढ़ाई। ३ ऋग्वेद अथवा यजुर्वेदका और पञ्चमको युगवत्सर कहते हैं। (२६६-६७) संग्रह। अनुवत्सरमें धान्य देनेसे महाफल मिलता है। अनुवाकसंख्या (सं० स्त्री०) यजुर्वेद के अट्टारह परि- अनुवन (सं० अव्य०) वनके मध्य, जङ्गलकी जगहमें, शिष्टका चौथा परिशिष्ट। चरणव्यूहमें अट्ठारहो बीहड़के इधर-उधर। परिशिष्टके यह नाम लिखे हैं,-१ यूपलक्षण-व्यास- अनुवर्तन (सं० लो०) अनु-वृत् ल्य ट। १ अनु- देवके मतसे यह उपज्योतिष चरणव्यूह ठहरता है, सरण, अनुगमन, आसपासका फेरा। २ व्याकरणमें २ छागललक्षण-व्यास इसे मानललक्षण बताते थे, अन्वय निमित्त पूर्वसूत्रके किसी विषयका परसूत्र में ३ प्रतिज्ञा-जिसे व्यास प्रतिज्ञानुवाक्य कहते रहे, आकर्षण, फ़िकरेमें मानी लगानेके लिये पहले कही ४ अनुवांकसंख्या-जो व्यासको बातसे परिसंख्या हुयी बातका मिला लिया जाना। ३ अनुबन्ध, तफ. होती है, ५ चरणव्यूह, ६ थाइकल्प, ७ शुल्भिकानि, सील-जेल। ४ समादर, फरमाबरदारी। ५ फल, ८ पार्षद, ८ऋग्यजप्रभृति, १० इष्टकापूरण, ११ प्रवरा- नतीजा। ६ सम्बन्ध, सिलसिला। ध्याय, १२ उक्थशास्त्र, १३ ऋतुसंख्या, १४ निगम- अनुवर्तनीय (सं० त्रि०) अनुवर्तन लगाने योग्य, व्यासके मतसे जो आगम है, १५ यज्ञपार्ष, जो पौछसे मिलाने काबिल हो, फेरा जानेवाला। १६ हौत्रक, १७ प्रसवोत्थान, १८ कूर्मलक्षण । अनुवर्तित्व (सं० क्लो०) अनुवर्तन बैठानेको स्थिति, अनुवाक्यवत्, अनुवाक्यावत् देखो। पौछ फेरनेवाली हालत। अनुवाक्या (सं स्त्री०) अनु-वच्-ण्यत्। ऋविग्- अनुवर्तिन् (सं० त्रि०) अनु-वत्-णिनि। पश्चादगामी, विशेष, देवताह्वानी ऋक्, जो ऋक् होता देवताके पौछे चलनेवाला, पिछलगा। वलिप्रदान लेनेको पढ़ता है। अनुवर्ती, अनुवतिन् देखो। अनुवाक्यावत् (स. त्रि.) अनुवाक्या-विशिष्ट, अनुवमन् (स० त्रि०) पश्चाद्गामी, पीछे फिरनेवाला। जिसमें अनुवाक्या लगी हो। अनुवश (सं० पु०) १ अपरेच्छासत्कार, दूसरेके अनुवाच (सं० पु०) अनु-वच्-णिच्-क्तिप । अध्यापक, दिलकी फरमाबरदारी। (त्रि..)२ अपरेच्छासम्पा अनुवाचक, मुअल्लिम, पढ़ानेवाला। दक, दूसरेको मर्जीका फरमाबरदार। अनुवाचन (स. क्लो) अनु-वच्-त्यु ट् । १ अध्यापन, अनुवषटकार (सं० पु.) वलिप्रदानान्तर वषट्का पढ़ाना। २ अध्वर्यु के प्रेशार्थ होता हारा ऋग्- लघु निनाद, वलिप्रदानके बाद जो वषट् धौरसे वेदका मन्त्रोच्चार। बोलते हैं। अनुवाचनप्रेष (सं० पु०) अनुवाचनादेश, दुहरानेका अनुवसित (सं त्रि.) १ वस्त्राच्छन्न, पोशाक पहने