पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५

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अ-अउघड़ 3 चाहिये। साधनका यह फल है कि साधकका चित्त एकाग्र इसके आदिमें आधा स्वर और अन्त में आधा होकर वह दीर्घायु होजाता है। उसके भौतरी हल् (अ+र) मिला हुआ है। इसीसे “अनृणी" वायु, पित्त, रक्त, तथा शुक्र स्वच्छ होकर शुद्ध होजाते ऐसी रूप-सिद्धि हो जाती है। कालिदास ने इस हैं और समाधिको पूर्वावस्थाको भाँति साधक सो शुद्धरूपको ग्रहण भी किया है। जैसे, तदहमेनाम् जाता अनृणां करोमि। ऋणशून्य । जिसे कर्ज न हो। बहुत दिनोंकी पुरानी बातें लिखी जानेके कारण अऋणी अऋणिनौ, अऋणिनः। (स्त्री०) अऋणिनी। पाठक भलेही हँसे परन्तु अब हँसनेका समय नहीं किसीसे उधार धन लेकर फिर चुका देनेसे ही है। पहिले हमलोगोंको देखकर जो हँसते थे, अब मनुष्य अऋणी अर्थात् ऋणमुक्त हो जाता है; परन्तु वे भी माथे पर हाथ रखकर सोचा करते हैं। इसके अतिरिक्त धर्मतः मनुष्यों पर और भी तीन संस्कृत-प्रिय मोक्षमूलर ( Max Miller ) साहबने प्रकारके ऋण रहते हैं। लिखा है-ओंकार जप करके देखो। पहिले यह ऋणं देवस्य योगेन ऋषीणां दानकर्मणा । वृथा, सारहीन मालूम होगा। परन्तु बात वास्तवमें सन्तत्या पितृलोकानां शोधयित्वा परिव्रजेत् ॥ ऐसी नहीं है। बार बार प्रणवका उच्चारण करनेसे होम यज्ञ आदि हारा देवऋण, दानद्वारा ओंकारका जप होता है। यह जप मनको एकाग्र ऋषिऋण, और सन्तान उत्पन्न करके पिट ऋणको कर ब्रह्मरूप महाकेन्द्र में लगानेके लिये किया जाता परिशोधकर ब्राह्मणको मोक्षसाधनमें चित्त लगाना है। हिन्दू जिसे मनको एकाग्रताका साधन कहते हैं; सवलोग उसका मन नहीं जानते । अएरना-(हि.क्रि.) अङ्गीकार करना। अँगरना। अउ-(हिं०) और, तथा, अपर। [इसकी योजना स्वीकार करना। धारण करना। पथमें ही होती है] अउघड़ (औघड़)-भारतवर्षका एक उपासक सम्प्रदाय । अउठा-(हिं० पुं० ) नापनको दो हाथको एक लकड़ी ब्रह्मगिरि नामक एक महन्त ने यह मत चलायाथा जिसे जुलाहे लिये रहते हैं। इस लकड़ीस जुलाहे दशनामी सन्यासी योगी गुरु गोरखनाथ की कृपा से अपना ताना बाना ठीक करत, कपड़े को नापते और “अउघड़" नाम देकर उन्होंने यह मत चलाया। समय समय पर सूतको भी ठीक करते हैं। गुजरात में उनको एक गद्दी है। इनमें शिष्य बनाने अउर-(हिं.) और।। को रीति नहीं है। इस गद्दी के महन्त को मृत्युके अऊत-(हिं० वि० ) अपुत्र, बिना पुत्रका, निःसन्तान । बाद सम्प्रदायका कोई एक मनुष्य किसी एक प्रकरणसे अऊलना-(हिं. क्रि०) जलना, गरमौ पड़ना, चुभना, गद्दी का अधिकारी बना दिया जाता है। छिदना, छिलना। इस अउघड़ मतके चलाने वाले ब्रह्मगिरिके रुखड़ अऋण-(वि० ) ऋणमुक्त, जो कर्जदार न हो। सुखड़ प्रभृति योगियों का मत बहुत कुछ मिलता है। अऋणिन्–(सं० त्रि०) न ऋण-इन् अस्त्यर्थे । नञ् इनके विषय में जनश्रुति फैली हुई है कि गोरखनाथ ने तत्। किसी किसी पुस्तक में इस तरह रूप-सिद्धि लो ब्रह्मगिरि को मन्त्र दान न देकर कई अपने चिन्ह दिये गई है थे। ब्रह्मगिरि गुरुसे उन चिन्हों को लेकर रुखड़ सुखड़ अऋणी चामवासी च स वारिचर मोदते । (महाभारत वनपर्व) प्रभृति को दे गये थे। नञ् तत्पुरुषसमासमें स्वरवर्ण पीछे रहनेसे अ इनमें किसी संन्यासी को मृत्यु होने पर सुखड़, रुखड़, को जगह अन् हो जाता है । *। तस्मान्नुड़चि । गुदड़ ये तीनों मतावलम्वी एकत्र होकर उसकी पा ६।३।७४। ऋकारका हलत्व ग्रहण करना अन्त्येष्टिक्रियासम्बन्धी सब काम करते हैं। पहिले ठीक नहीं है। ऋकार अईस्वरवर्ण है। अर्थात् मृत संन्यासी को स्नान कराया जाता है ; उसके बदन ।