पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अनुवाचनीय-अनुवाद ४६३ अनुवाचनीय (स त्रि०) अनुवाचन प्रयोजनमस्य ; गुणवाद और अवधारितके वाधस्थलमें भूतार्थवाद अनुप्रवचनादित्वात् छ। अध्यापक, पढ़ानेवाला। (सिद्धार्थवाद) पड़ता है। यथा-'इन्द्रो वृत्रहा।' अनुवाचित (स० त्रि.) पूर्वोक्त, पूर्व कथित, पहले वृत्रासुरको इन्द्र ने मारा है। कहा हुवा, जिसे पेश्तर बता चुके हों। भूतार्थवाद दो प्रकारका रहता है-स्तुत्यर्थवाद अनुवात (सं० पु.) अनुकूलो वातः। गमन- और निन्दार्थवाद। जैसे- कारीकी ओर को चलनेवाला वायु, जो हवा जाने "सन्धयामुपासते ये तु सतत शंसितव्रताः । वालेको तर्फ चले। २ शिष्यको ओरसे गुरुके तयों विधूतपापास्ते यान्ति ब्रह्मलोकमनामयम् ॥" बहनेवाला वायु, जो हवा शागिर्दको तर्फ से उस्ताद के अर्थात् यो सम्यक् नियमानुसार तीन बार सध्या- पास पहुंचे। उपासना करता, वह व्यक्ति निष्पाप बन अक्षय ब्रह्म- अनुवाते (स० अव्यः) वायुको ओर, हवाको तर्फ., लोकको जाता है। इस जगह सन्ध्या-उपासनाको जिस ओरको हवा चले। प्रशंसा पड़नेसे स्तुत्यर्थवाद निकालते हैं। अनुवाद (स० पु०) १ कुत्सितार्थवाक्य, निन्दा, "स्त्रौतेलमांससम्भोगौ पर्वस्व तेषु वै पुमान् । • बदगोई। २ अनुकरण, नकल। ३ भाषान्तरकरण, विण्मूबभोजन' नाम प्रयाति नरक मृतः ॥" तरजुमा, उलथा। ४ पश्चात् कथन, पुनः कथन, जो पुरुष इन समस्त पर्व में स्त्री, तैल और मांसको दोहराव। ५ पूर्व विधि द्वारा निर्दिष्ट विषयका कार्य- बरतता, वह मलमूत्रभोजन नामक नरकमें गिरता विशेषके निमित्त पुनरुल्लेख, आदमोसे बन सकनेवाले है। यहां विशेष पर्व दिनमें स्त्री, तेल और मांसके जिस कामको बात शास्त्र में लिखी हो। जैसे सम्भोगको निन्दा निकलनेसे निन्दार्थवाद लगेगा। आकाशमें फ ल नहीं खिलता-आगसे हिम हटता "विध्यर्थवादार्थवादवचनविनियोगात् ।” (गौतमसूत्र ६१) है। ऐसे स्थलमें सकल समझते, कि आकाशमें फल ब्राह्मणवाक्य तीन रूपसे विनियुक्त होता है। नहीं खिलता-आगसे हिम हटा करता है। अतएव यथा-विधिवाक्य, अर्थवादवाक्य और अनुवादवाक्य । इन सकल स्वतःसिद्ध विषयका उल्लेख उठनेसे इसे "विधिविधायकः।” (गौतमसूत्र ६२) अनुवाद कहेंगे। ७ अर्थानुवाद। यह तीन तरहका जो वाका कार्यका विधायक हो, वह विधिवाक्य होता है। जैसे- कहायेगा। "विरोधी गुणवादः स्वादनुवादोऽवधारिते। "स्तुतिनिन्दापरकृति: पुराक ल्प इत्यर्थवादः ।" (गौतमसूत्र (३) भूतार्थवादस्तद्धानावर्थवादस्विधा मतः॥" श्रुति, निन्दा, परकृति और पुराकल्प-यहो चार विरोधमें अर्थात् जहां विशेष्य विशेषणके अन्वयका प्रकार अर्थवाद आता है। विरोध बंधता, वहां गुणवाद रहता है। जैसे, 'यज "विधिविहितस्यानुवचनमनुवादः ।" (गौतमसूव ६४ ) मानः प्रस्तरः।' यहां प्रस्तर शब्दसे कुशमुष्टिका अर्थ विधिद्वारा विहित विषयके पश्चात् कथनका नाम आता है। जो यजमान वही तर भी होगा। इस ही अनुवाद है। प्रकार अभेदरूप अन्वयका विरोध पड़नेसे यजमानका अनुक्षण कथन या प्रमाणान्तरसे अवगत अर्थका कुशमुष्टि धारणरूप अङ्ग बताया गया है। इसीसे शब्दद्दारा संकीर्तन भी अनुवाद कहलाता है। यह गुणवाद कहाया। यथा-अनुवाद चरणानाम् । पा २।४।३। पाणिनिके इस सूत्रमें निश्चित विषयका पुनर्वार कथन अवधारित होता काशिकाकारने अनुवाद शब्दका अर्थ यों लगाया है, जैसे-प्रातःकाल सूर्य निकलता है। यहां "प्रमाणान्तरावगतस्वार्थस्य शब्द न संकीर्तनमावमनुवादः ।" सवेरे सूर्यका निकलना समझा रहनेस, उसका फिर यानी प्रमाणके अनन्तर जो अर्थ अवगत होता, कहा जाना अवधारित होगा। उसका शब्दसे संकीर्तनमात्र अनुवाद कहाता है। 124