पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५०७

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कैसे अद्भुत मिला हुवा। सम्बन्ध, अनुषङ्गिक-अनुष्टुभ इसतरह दोनोका उल्लेख न उठाना पड़ता। फलतः रात्मना ततः स्पर्शादिय॑ज्यमाना स्तोभते वर्धते, अनु- कोई उद्देश्य से किसी काममें लगने पर, जो उद्देश्य न स्तुभ् वृद्धार्थे विप्, अथवा पूर्व पञ्चाशदक्षरात्मना था, वह भी यदि पूर्ण निकले, तो प्रसङ्ग शब्द ततो गद्यपद्यादिरूपण वर्धते, अथवा स्तोभतिरचति व्यवहारमें आता है। प्रसङ्ग देखो। कर्मा। आनुपूर्वेण स्तौति देवता । १ वाक्, जबान । अनुषङ्गिक (स. त्रि.) फलस्वरूप, आवश्यक ३ सरखती, वाणी। ३ अष्टाक्षरपाद छन्दोविशेष, फलकी भांति पोछे पड़ते हुवा, नतीजे-जैसा, जो आठ-आठ अक्षरके चार पादका छन्द। अनष्टुप ज़रूरी नतीजको तरह पीछे लगता हो। २ संलग्न, छन्दके पुरातन विवरणको आलोचना निकाल देखनेसे संयुक्त, संबद्ध, लगा हुवा, चिपका पड़ा, मिला-जुला। कितना ही ऐतिहासिक रहस्य खुल जाता हैं। अनुषङ्गिन् । (सं० त्रि.) अनुषज्यते प्रतिक्षणमव वैदिक समयके गद्यपद्यको धारा तिष्ठते, अनु-सञ्ज-धिनुण । १ सर्वदा प्रसक्त, हमेशा प्रकारको रहो! वह सहजमें पढ़ जानेपर सुनने में २ नियत अवस्थित, मुदामी तौरपर वैसी अच्छी नहीं लगती। किन्तु स्वरसे पढ़नेपर मौजूद। ३ व्यापक, साधारण, मामूली, हावी। मिष्ट मालूम होती है। वैदिक समयमै अनुष्टुप अनुषङ्गी-अनुषङ्गिन् देखो। छन्दका नाम मिलता है अनुषज् (स० अव्य०) अनु-सञ्ज-क्विम्। आनुपूर्व, "अनुष्टुभा सोम उक्थैः ।" (ऋक् १०१२०१४) 'पूर्व अवधि, पहलेतक। सकल भाषामें हो छन्द देख भाषाका कुछ-कुछ अनुषञ्जन (सं० ली.) १ फलका सम्बन्ध, नतीजका काल बताया जाता है। तुलसीदास और सूरदासका लगाव, मेल-मिलाप । २व्याकरणका पयार और त्रिपदी वर्तमान है, किन्तु उसमें अच्छी नहवका लगाव। शृङ्खला नहीं समझ पड़ती। उसके बाद पद्माकरके अनुसंञ्जनीय (स० त्रि.) संयोजनीय, जो मिलाया पुस्तकमें कितनी ही पद्यरचनाको शृङ्खला आ गयौ जाये, जोड़नेके काबिल। है। शेषमें, हरिश्चन्द्रने निर्दिष्ट नियमसे. छन्द अनुषण्ड . ('स० अव्य०) षण्डः पद्मसमूहस्तस्मिन् बनाया। किन्तु इन सकल कविके पुस्तकमें अमित्रा- विभक्त्यर्थे अव्ययी। १. पद्मसमूहमें, कमलदलपर। क्षर छन्द नहीं मिलता। अतएव अमिताक्षर छन्द (पु०) २ किसी स्थान अथवा देशका नाम । पढ़नेसे मालूम पड़ता, हम तुलसीदासके समयसे अनुषिक्त (सं० त्रि०) अनुषिच्यते स्म, अनु-सिच् अनेक दूर आ पहुंचे हैं। संस्कृत भाषाके पक्षमें कर्मणि त। १ सर्वदा सिक्त, हमेशा सिंचा हुवा। अनुष्टुप् छन्द भी बिलकुल वैसा ही है। ऋषिने जब २ पश्चात् सिक्त, जो पीछे सींचा गया हो। प्रथम मन्त्र बनाया, तब अनुष्टुप् छन्द न था। उसके अनुषेक (स.पु०) अनुषेचन देखो। बाद अनुष्टुप् छन्दका जितना ही अधिक चलन पाते, अनुषेचन (सं० लो०) . अनु-सिच्-भावे ल्युट । उतना ही समझ सकते-हम वैदिक कालसे कितनी १ प्रतिक्षण सेचन, मुदामो सींच। २ पश्चात् सेचन, दूर आ पहुंचे हैं। वेदके समय यह छन्द अल्प-अल्प 'पौके पानीका दिया जाना। चला था। पौछे पौराणिक समयमें सभी इसको अनुष्टुति - ( स० स्त्री०) अनु-स्तु-भावे तिन् । अनु आदर देते रहे। अब यह सर्वत्र ही विशेष प्रचलित क्रमका स्तव, अनुरूप प्रशंसा, सिलसिलेवार तारीफ, है। अनुष्टुप् छन्द सरल और मिष्ट होता और जैसेकी तैसी सिफ़त। लोक-रचनामें सहज पड़ता है। अनुष्टुब्गर्भा (स. स्त्री०, उणिह थेणीमुक्त वैदिक पहले हिन्दुस्थानमें अमित्राक्षर छन्द न रहा। छन्दोविशेष पद्यके अन्तको तुक न मिलनेसे, हिन्दुस्थानमें कोई अनुष्टुभ् (स. स्त्री.) अनुपूर्वण क्रमेण पूर्व मका कविताको आदर न देता था। किन्तु अब कितने.