पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५०८

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वैराजसाम, अनुष्टुभ ५०१ ही आधुनिक विद्वानोंने अमिताक्षरछन्दमें काव्यादि वाल्मीकिको इस छन्दका जन्मदाता बतानेके लिये लिखा है। किन्तु इस अमिनाक्षरके चलनसे पाठक कोई-कोई ‘मा निषाद' इत्यादि कहानी सुना गये हैं। दो श्रेणीमें बंट गये। जो अंगरेजी समझते और वाल्मीकि आदिकविके नामसे प्रसिद्ध हैं, अतएव अंगरेज़ी भाषाके मिलन प्रभृति महाकविका अमित्रा अनुष्टुप छन्दके निकालनेका यशः उन्होंको शोभा देता क्षर. रचित अपूर्व काव्य पढ़ते, वह अमिताक्षर है। किन्तु वास्तविक वाल्मीकिसे अनेक पूर्व अनुष्टुप काव्यको विशेष प्रशंसा करते हैं। अमिताक्षर छन्द छन्द चल पड़ा था। फिर भौ, छन्द अच्छा होनेसे उन्हें मिष्ट मी मालूम होने लगा है। किन्तु अंगरेजीसे प्रत्येक कवि उसके निकालनेका यशः लेना चाहता अनभिज्ञ व्यक्तिको इसका रस नहीं मिला, वह होगा। अनुष्टुप् छन्दके मनोनीत होनेका मत तो अमिताक्षरछन्दको निन्दा सुनाने लगा। अनुष्टुप् छन्दके बता चुके ; किन्तु किसी-किसीने प्रकारान्तरसे इसकी भाग्यमें भी वही पड़ा था। इसके प्रथम चलनेसे निन्दा भी सुनायी है। तैत्तिरीय-संहितामें लिखा कोई-कोई पक्षपाती बने और कोई-कोई प्रकारान्तरसे है,-प्रजापतिने अपने पैरसे एकविंश स्तोमको सृष्टि इसको निन्दा निकालने लगे। सजायो थी। उसके बाद छन्दमें अनुष्टुप्, ऐतरेय-आरण्यकमें लिखा, कि अनुष्टुप् छन्दसे मनुष्यमें शूद्र और पशुमें उन्होंने घोड़ा बनाया। इससे स्वर्गकामना पूर्ण पड़ती है। 'अनुष्टुभौ स्वर्गकामः कुर्वीत ।' घोड़ा और शूद्र अन्य जन्तुका बोझ ढोता है। शूद्र यज्ञ दो अनुष्टुप्में चौंसठ अक्षर रहते, उसके तीन अक्षरमें करने नहीं पाता ; कारण, उसके बाद फिर देवता- यह तीनो लोक वसते हैं। उससे फिर एकुश लोक को सृष्टि कब बनी थी। इसलिये वह पैरसे जीविका निकलता है। प्रत्येक एकुश लोक द्वारा यह उन्हीं चलाता, पैरसे ही पैदा हुवा सकल लोक पर चढ़ते और चतुःषष्ठितम द्वारा "पत्त एकविंश' निमिमौत । तमनुष्ट भछन्दोऽन्वसन्यन्त । वैराज वर्गलोकमें जा पहुंचते हैं। साम शूद्रो मनुष्याणामश्वा: पशूनाम् । तस्मात्तौ भूतस'क्रामिणावश्य "इयोर्वा अनुष्ट भौश्चतुःषष्टीरक्षराणि। चय इम ऊर्ध्वा एकविंशा लोका शूद्रश्य। तस्मात् शूद्री यज्ञ ऽनवक्त पो न हि देवता अन्वमन्यन्त। तस्मात् एकवि'शत्य कवि'शत्य वमाल्लोकान् रोहति एव ल स्वर्गीके चतुःषष्टितमैन पादावुपजीवतः। पत्तो घसज्ये ताम् ।” (७१११) प्रतितिष्ठति ।" (ऐतरेय पारण्यक) अनुष्टुप् छन्द, शूद्र, घोड़ा प्रभृति प्रजापतिके पैरसे विष्णुपुराणमें बताते, कि एकविंशस्तोम, अथर्ववेद, उत्पन्न हुवा था। पैर, शरीरका निकृष्ट स्थान होता; आप्तोर्याम नामक याग, अनुष्टुप् छन्द और वैराजसाम इसीसे शूद्र और अश्वको दुर्गतिवाली बात बतायी ब्रह्माके उत्तर मुखसे उत्पन्न पड़ा था। गयो। किन्तु अनुष्टुप् छन्दका हाल न खुला । कहना "एकविशमथर्वाणमाप्तोयामाणमेव च । पड़ेगा, कि संहिताकारने इस जगह एक प्रकार अनुष्ट भं स वैराजम् उत्तरादसृजन् मुखात् ॥ १५॥४५॥ चातुरी चलायो है। निःसन्देह, नाम और साहचर्य उधर भागवतपुराणके मतमें,-प्रजापतिके मांससे हेतुमें एक की निन्दा उठानेसे सकलको ही निन्दा त्रिष्टुप, सायुसे अनुष्टुप और अस्थिसे जगती नामक निकलेगी। छन्द निकला है। अतएव अनुष्टुप छन्दको निन्दा भी होती है और "विष्ट व मांसात् न तोऽनुष्टु व जगत्यस्त्व: प्रजापतेः।” (२१२।२९) प्रशंसा भौ। इस प्रकार भिन्न मत पड़नेका कारण यह निरुक्तमें लिखते हैं, कि शरत्, अनुष्टुप, एकविंश- है,-सकल देशमें हो जो चिरकालसे चलते आती, स्तोम और वैराजसाम-यह पृथिव्यात्मक होते हैं। अनेक ही उस पुरातन प्रथाके पक्षपाती बन बैठते हैं। "शरदनुष्ट वेकविंशस्तोमो वैराज' सामः इति पृथिव्यात्मनि। (११) कोई नूतन प्रथा अच्छ, होते भी सब लोग उससे वाल्मीकि किंवा तत्परवतौं कविके समीप अनुष्टुप खुश नहीं रहते। इसीसे जो वेदको प्रथम अवस्थाके विलक्षण आदरका छन्द बन गया था। इससे गद्यपद्य पढ़ते, उन सब लोगोंको वही अच्छा 126