पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५१२

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अनुस्पष्ट-अनुहरिया ५०५ अनुस्पष्ट (सं० वि०) स्पष्ट, साफ, प्रकट, ज़ाहिर। पर्याय हैं। 'ठकारो लिपिसाम्यादिन्दुरुच्यते ।' (राधवभ) वर्ण अनुस्फुट (सं० वि०) वाणको भांति भनभनाते हुवा, लिखने में विन्दु अर्थात् अनुस्वार-जैसा उठता है। जिससे जन्नाटेको आवाज आ रही हो। स्वरवर्णके सङ्ग अनुस्वार पढ़ा जाता है; किन्तु अनुस्मरण (स• क्लो) स्मृति, पुनः पुनः स्मरण, वस्तुतः स्वरवर्ण नहीं ठहरता। स्वरके प्राथय भिन्न याददाश्त, बार-बार यादका आना। केवल अनुस्वारका उच्चारण कैसे निकलेगा ! अनुस्मृत ( स० त्रि०) स्मरणविशिष्ट, जो याद रहा हो। अतएव हलन्त वर्णके साथ अनुस्वारका प्रयोग असम्भव अनुस्म ति (सं० स्त्री०) संलग्न स्मरण, लगी हुयी है। क् +अ-क, न्+अ-न; इसीतरह अजन्त याद, सबको छोड़ किसीकी यादका आना। वर्णके साथ अनुस्वार लगता है। किन्तु क्न्, अनुस्यत (सं० वि०) क्रमानुगत स्यूत, सिलसिलेवार इसतरह हलन्तवर्णके साथ अनुस्वार नहीं आता। सिला हुवा, जो एक साथ गूथा, पिरोया या बांधा सुतरां अनुस्वार स्वरवर्ण कैसे होगा! सिवा गया हो। अनुस्वारके कार्य-कारण-भावको देखकर भी यह अनुस्रयामन् (सं० त्रि०) बैलसे खींची जानेवाली व्यञ्जन वर्ण ही समझ पड़ता है। न और म-इन गाड़ीपर न जाते हुवा, जो बैलगाड़ीपर न चले। दो व्यञ्जन वर्ण के स्थानमें अनुस्वार आये और अनुखर,-अनुखार देखो। ङ अ ण न म य व ल यह सकल व्यञ्चन वणं अनुस्खान (सं० पु०) अनुगत शब्द, सुवाफिक आवाज । बनेगा। यही कारण है, कि अनुखार, सिवा अनुस्वार (सं० पु०) अनुवर्यते सलौनं शब्दयते, व्यञ्जनके किसौतरह स्वरवर्ण नहीं हो सकता। अनु-ख कर्मणि घञ्; अथवा-वर्यते शब्दयते | अनुस्वारवत् (सं० त्रि.) अनुस्वारविशिष्ट, नून्- स्व-अप स्वरः शब्दः। स्वर एव स्वार्थे अण् स्वारः । गुन्ने वाला, जिसमें अनुस्वार लगा हो। अनु-सह-स्वारः शब्दः उच्चारणमिति यावत् यस्य, | अनुस्वारव्यवाय (सं० पु०) दो शब्दके बीच अनुस्वार बहुव्री०। यहा स्वय॑न्ते परानपेक्ष्य स्वयं शब्दयन्ते द्वारा डाला हुवा व्यवधान, जो मुफ़ारकत नन्-गुन्ना उच्छर्यन्ते इति यावत् स्वराः अचः, स्वर एव स्वारः अण् । दो आवाज़के बीच लगाये। अनु णत्वादि कार्ये सदृशः वारण अचा, प्रादि० स०। अनुस्वारागम (सं० पु०) अनुखारके संयोगको वृद्धि, अथवा स्वारं स्वरं अनुगतः पश्चाद्गतः, अतिक्रा-तत् । जो मुस्तज़ादी नून-गुना मिलानेसे निकले। अथवा अनुगतत्वेन सु सुष्ठु आरः प्राप्तिर्यस्य, बहुव्री० । अनुह-विधात्रके पुत्र और ब्रह्मदत्तके पिताका नाम। अनु-सु-ऋ-भावे घञ्। पश्चात् शब्द, पीछेकी आवाज, अनुहरण (स• क्लो०) अन-ह-भावे ल्युट । १ देश- सानुनासिक अक्षर, हरूफ गुना। भाषा अथवा चेष्टादि द्वारा सदृशीकरण, जो मुशाबिहत अर्थात् जो वर्ण अन्यके सङ्ग मिलित हो निकलता, मुल्की जवान या इशारे वगैरहसे मिलायी जाये। सिवा अन्य वर्णके आश्रय बोला नहीं जा सकता ; २ सादृश्य धर्मका प्रकाश, नकल । अथवा जिस वर्णका णत्वादि कार्यमें स्वर-जैसा व्यवहार अनुहरत् (सं० त्रि.) १ सदृशीकरण निकालते बंधता और जो शून्य या विन्दू-जैसा (') अनुनासिक हुवा, जो नकल उतार रहा हो। २ अनुरूप, वर्ण होता है। मुशाबिह। ३ योग्य, काबिल। "अं अः इत्यचः परावनुखारविसगौं।" (सिद्धान्तकौमुदी) अनुहरना (हिं० क्रि०) अनुकरण निकालना, नक्त अं अः-ऐसे ही अच्के पर विन्दुका नाम अनुस्वार उतारना, बराबरी मिलाना। है ; दो विन्दुको विसर्ग कहते हैं । अनुहरमाण, अनुहरत देखो। "खाकाशशून्यदहना खलु साधकार्या: । (ऋणिधनिचक्र) अनुहरिया. (हिं० वि०) सदृश, मुशाबिह, तुल्य, ख-आकाश और शून्य यह सकल हो अनुखारके बराबर। 127