पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

3B 1 अनूबन्धा-अनू ५०६ अनबन्ध्य (सं० त्रि.) अनुयागं लक्षीकृत्य बध्यते कश्यपको कट्ठ और विनता नामवाली दो पत्नी रहीं। यत्, उपसर्गस्य दीर्घत्वम्। बांधने योग्य, जो बांधा पतिभक्ति और पतिसेवामें वह कोई त्रुटि न डालती जाने काबिल रहे। यह शब्द बहुधा यज्ञीय पशुका थीं, उसीसे कश्यपने दोनोको दो वर देना चाहा। विशेषण बनता है। कद्रुने स्वामीसे यह वर मांग लिया,-'हमारे गर्भसे अनूमाकोण्ड-दाक्षिणात्यके वरङ्गल राज्यको प्राचीन सहस्र तेजस्वी सर्प उत्पन्न हों।' विनता बोलीं,- राजधानी। हस्तिनापुरवाले क्षत्रियवंशके सन्तान 'मुझे दो पुत्र चाहिये ; किन्तु वह कद्रुको सन्तानसे होनेका दाबा दिखानेवाले काकतीयों या गणपति अधिक बलवान् रहें।' महर्षिका वाक्य निष्फल जा योंने इसे गोदावरी नदीके दक्षिण हैदराबादसे नहीं सकता, कट्ठ और विनता दोनो ही गर्भवती उत्तर-पूर्व चवालीस कोस दूर बसाया था। पहले बनीं। कुछ काल पीछे कट्ठने पांच सहस्र अण्डे यहां किसी चरवाहे सरदारने लट-मार आधिपत्य दिये, दूसरे विनताके गर्भसे दो अण्डे ज़मीनपर गिरे। जमाया और धीरे-धीरे अपना प्रभाव बढ़ाया। उनसे दास-दासौने उन अण्डोंको बरतनके भीतर रख सचहवीं पुश्तमें काकतीय प्रलय राजा बने, जिनसे छोड़ा। पांच सौ दिन, पांच सौ मास, गिनते-गिनते वरङ्गल वंश चल पड़ा। सन् १३१३ ई में कई पांच सौ वत्सर बीत गये ; उसके बाद कट्ठके अण्डे शताब्द राज्य रखने बाद गणपतिवंशको मुसलमान | फूटे, उनसे एक सहस्र तेजस्वी सर्प निकल पड़े। आक्रमणकारियोंने मार भगाया। यहां प्रतापरुद्र विनताके दोनो अण्डे न चटके थे। सरला रमणी- नामक दो बड़े राजा हो गये, जिन्होंने कितनी हो जातिका प्राण सब सहता, किन्तु सपत्नीका सम्पद लड़ाइयां जीतों। द्वितीय प्रतापरुद्रको माता महा नहीं सहा जाता,-हृदयपर कठिन वचकी तरह जा राणी सद्रम्मा भी बहुत प्रसिद्ध थीं। धमकता है। विनताने मनके क्षोभसे अपना एक अनूयाज (सं० पु०) अनु पश्चादिज्यते असौ ; अनु अण्डा तोड़ डाला। सन्तान तो निकला, किन्तु यज-घञ्, उपसर्गस्य वा दीर्घत्वम्। अनुयाज देखो। उसका शरीर उस समयतक परिपक्व न पड़ा; केवल अनराध (संत्रि०) अनुराध्यते ; अनु-राध-कर्मणि मस्तक, हस्त, वक्षःस्थल रहा,-पैर न आया था। घञ्, उपसर्गस्य दीर्घत्वम् । १ अनुराधनौय, आराधनीय, इसौसे अरुणको लोग अनूरु कहते हैं। वह जड़ीभूत आराधनाके योग्य, उपास्य, तसव्वरमें लाने काबिल, हो सूर्यके सारथि बन गये। गरुड देखो। जो परस्तिशके लायक रहे। २ शुभकारक खुशी अनूर्जित (स० त्रि.) १ निर्बल, कमजोर। खिलानेवाला। (लो०) भावे घञ्। ३ आराधना, २ गर्वशून्य, बेफ़खू र, जिसे घमण्ड न रहे। उपासना, परस्तिश। अनवं (स त्रि०) अनुच्च, नौचा, जो ऊंचा न हो। अनूरु ( स० त्रि०) नास्ति ऊरू यस्य, नञ्-बहुव्री० । | अनूभास् (वै० त्रि०) जिसकी दीप्ति ऊपर न १ जरूशून्य, वेरान, जिसके रान न रहे। (पु.) उठे, चमक न निकालनेवाला, जो पवित्र अग्नि न २ सूर्यका सारथि, अरुण। ३ विनताका ज्येष्ठ पुत्र । जलाये। ४ गाड़का ज्येष्ठभ्राता। ५ कश्यपका पुत्र। अनूमि (सं० त्रि.) न ऊर्मिः, ऊर्मि हिंसाकर्मा । 'सूरसूतोऽरुणोऽनूरुकाश्यपिर्गरुड़ायजः।' (अमर) १ अहिंस्य,शत्रुके अगन्तव्य, मारा न जानेवाला, जिसपर इनके जर न रहनेका कारण अनूरुसारथि शब्दमें देखी। दुश्मन पहुंच न सके। २ न टकरानेवाला, जिसमें अनूरुसारथि (स'० पु०) अनरुः अरुण: सारथिः लहर न उठती हो। "तहीन्द्र व्यश्ववदनूमि।" (कटक ८।१४।२२।) रथचालको यस्य, बहुव्री० । सूर्य जिनके अनूरु अर्थात् अनूला (सं० स्त्री०) काश्मीरको नदीविशेष। अरुण सारथि हैं। महाभारतमें यह वृत्तान्त बताया अनवज् (वै० पु०) पसलीके पासका भाग जिस्मका है, अरुण किस कारणसे सूर्यके सारथि बने थे। जो हिस्सा पसलौके पास रहता है। 128