पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५२५

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५१८ अनौपम्य -अन्तःपञ्चमकारयजन अनौपम्य (स. त्रि.) अनुपम, उपमाविहीन, शान्त, घोर एवं मूढ़ नामक अन्तःकरणको तीन लासानी, जिसका जोड़ न मिले। वृत्ति हैं। वैराग्य, क्षान्ति, नौदार्य-यह तीन शान्त अनौरस (सं० पु०) गोद लिया हुवा लड़का, जो वृत्ति कहलाते हैं। तृष्णा, स्नेह, अनुराग, लोभ लड़का गोद लेकर बेटा बनाया जाये। प्रभृतिका नाम घोर वृत्ति है। मोह, भय प्रभृतिको अन्त (सं० पु०-क्ली०) अन्तति जीवनादीनां सीमान मूढ़ वृत्ति कहते हैं। बध्नाति, अन्त पचादि० अच् ; अथवा अलति गच्छति सांख्यवादी बताता, कि शान्त प्रभृति वृत्ति एक- न तिष्ठति, अम गतौ उण-तन्। १ जघन्य, चरम, कालसे ही मनमें पहुंच सकती हैं। किन्तु नैयायिक अन्त्य, पाश्चात्य, पश्चिम, अखौर सिरा, हद, शर्त ऐसा विश्वास नहीं रखता। वह कहता, कि अन्त:- 'अन्तीजघन्य चरममन्ता पात्रात्य पश्चिमाः। (अमर) करण अति क्षुद्र पदार्थ है। “अन्तःकरणमणपरिमाणम् ।" इस- २ नाश, मृत्यु, निधन, ज़िन्दगीको बरबादो, मौत, लिये उसमें एककालसे इतने ज्ञान जम नहीं सकते। जवाल। ३ अवसान, समाप्तिरम्य, खातिमा, पूरेका शान्त प्रभृति वृत्ति एक-एक कर उठती है। 'अयोगपद्याज- पड़ना। 'मृताववसिते रम्य समाप्तावन्त इष्यते।' (शब्दार्णव ) ज्ञानानाम् ।' सकल ज्ञान एककालमें नहीं आ सकते। ४ स्वरूप, सूरत, शक्ल । ५ निकट, नज़दीक । ६ प्रान्त, मन, बुद्धि, अहङ्कार और चित्त-यह चार चन्द्र, सूबा। ७ निश्चय, यकीन। ८ अवयव, अज। ब्रह्मा, शिव और विष्णु स्वरूप अन्तःकरणके अधिष्ठात्री 'अन्तः स्वरूपे निकट प्राप्त निश्चयनाशयो अवयवेऽपि।' (हेम) देवता हैं। 2 अति मनोहर, निहायत दिलफरेब । अन्तःकल्प (सं० पु०) बौद्धमतानुसार-वत्सरको 'अन्तःप्रान्तेऽन्तिक नारी स्वरूपेऽति मनोहर।' (विश्व) सख्याविशेष, युग, सालका खास जखीरा। अन्तःकण्ठशल्यावलोकिनी (सं० स्त्री०) नाड़ोयन्त्र- अन्तःकुटिल (स० पु० ) विशेष, दश अङ्गुलकी खास नाड़ी। ७-तत्। १ सङ्ख । (त्रि.) २ कुटिलान्तःकरण, जो अन्तःकरण (सं० लो०) क्रियन्ते कर्माण्यनेन करणं अतिकुटिल हो, वक्रमन, टेढ़े दिलवाला, निहायत करणे ल्युट। करणाधिकरणयोश्च । पा ११७॥ अन्तः शरीर कज-पादा। मध्यस्थमदृश्यमिति यावत् करणमिन्द्रियम्, कर्मधा० ; | अन्तःकमि (सं० पु०) अन्तमध्ये कमिः कीटविशेषो शरीरस्थ-पदार्थानां सुखादीनां करणं ज्ञानसाधकतमम् यस्य । १ कमिकोष, कौड़ेका कोय। (त्रि०) २ मध्यमें ६-तत्। 'करणं साधकतम् चैव गाचे न्द्रियेष्वपि ।' (अमर) मन, कमियुक्त, जिसके भीतर कीड़े पड़े हों। तबीयत, मस्तिष्क, दमाग, विचारबुद्धि, खयाल अन्तःकोटरपुष्पी (सं० स्त्री०) अन्तःकोटरे पत्र- करनेकी कुवत, हृदय, गुर्दा, विवेक, समझ, आत्मा, मध्ये पुष्पं यस्याः, बहुव्री०। नौलबुङ्गा, एक पेड़ रूह, अन्तरिन्द्रिय, शरीरके मध्यमें स्थित और ज्ञान जिसके पत्ते में फूल खिलता है। एवं मुखादि जनक मन-बुद्धि-चित्तादि नामक इन्द्रिय । अन्तःकोण (सं० पु.) भीतरी कोना। वेदान्तके मतसे अन्तःकरण चार प्रकारका होता है,- अन्तःकोप (सं• त्रि०) मानसिक क्रोध, अन्दरूनी गुस्सा । "मनोबुडिरहङ्कारश्चित्तं करणमन्तरम् । अन्तःकोष (सं० लो०) भाण्डारगृहका भीतरी स्थान, संशयो निश्चयो गर्वः स्मरणं विषया इमे ॥" जो कमरा तोशेखाने के भीतर बना हो। मनके द्वारा संशय लगता, बुद्धि हारा निश्चय आता अन्तःपञ्चमकारयजन (सं• लो०) अन्तर्मनसा पञ्च- पृथिवीमें अकेले हमों धनवान् हैं, इत्यादि मनुष्य मकाराणां यजनं यत्र-तत् गर्भ ३-तत्। मन ही मन वृत्ति द्वारा गर्व बढ़ता और चित्त द्वारा स्मरण पड़ता तन्त्रोक्त मद्यादि पञ्चमकारका चिन्तारूप यन्न । है। अतएव संशयादि-इस चार कार्यभेदसे मन आदि | कुलार्णवतन्त्रके अन्तर्यजन बीच लिखा, कि सुरा शरीरके अभ्यन्तरस्थ इन्द्रिय भी चार ही होते हैं। शक्तिरूप और मांस शिवरूप होता है, भैरव इन अन्तमध्ये कुटिलं वक्रम्,