पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५२७

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५२० अन्तःपुरजन–अन्तःपूजा चारी कञ्चुको प्रभृति, जनानखानेका मुहाफिज । शुद्धान्तःकरण एवं सुशिक्षित व्यक्ति हो राजाके अन्तः- अन्तःपुरचरका लक्षण यह लिखा है,- पुरका अध्यक्ष हो सकता है। “अन्तःपुरचरो उद्धो विप्रो गुणगणान्वितः अन्तःपुरि ( स० त्रि०) पृ-इ-पूरि ; अन्तर्मध्या पूरिः, सर्वकार्यार्थ कुशलः कच कौत्यभिधीयते । कर्मधा । १ मध्यनगर, बीचका शहर । २ मध्यराजा, जरावैक्तव्ययुक्तेन विशोदगावे या कञ्च को।" (बहत्परा०) दरमियानी बादशाह । ३ मध्यनदी, बीचवाला दरया। अर्थात् अने कगुणयुक्त, सर्वकार्यकुशल और अन्तः- | अन्तःपुरिक (स० पु०) अन्तःपुरे नियुक्तम्, ठक् न पुरचारी ब्राह्मणको कञ्चुको कहते हैं। जरा एवं वृद्धिः। अन्तःपुरका अध्यक्ष, कञ्चुको प्रभृति, जनान- गलित मांस होने से वह अन्तःपुरमें घुस सकता है। खानेका मुहाफिज़, खोजा वगैरह। (स्त्री०) अन्तःपुरके निमित्त विशेष चर रखने की प्रथा अन्तःपुरिका। अति प्राचीन कालपर सकल सभ्यदेशमै प्रचलित अन्तःपुष्प (स. क्लो०) अन्तर्गतं पुष्पं स्त्रीरजः । रही। रूम, यूनान, मिस्र प्रभृति सकल स्थानके द्वादशवर्षवयस्का स्त्राका अप्रकाशित रजः, जो रक्त. धनाढ्य लोग अन्तःपुरके लिये खोजे रखते ; किन्तु बारह वत्सरमें भौ न निकले, बारह बरसकी औरत- भारतवर्षके हिन्दुवोंवाले घर सच्चरित्र वृद्ध ब्राह्मण का बंधा हुवा हैज़। रहते थे। अनेक अनुमान बांधते, कि खोजा रखनेको अन्तःपूज (सं० त्रि०) नासूरदार, नासूरी। प्रथा प्रथम अफ्रीकामें पड़ी थी। पौछे रूम, यूनान अन्तःपूजा (स० स्त्री०) आन्तरिको पूजा, तन्त्रोक्त और एशिया प्रभृतिके लोगोंने इस चालको पकड़ा। मनःकल्पित वस्तुभिः वलिदान होमादिरूपा देवार्चना; उस समय सकल हो देशके धनाट्य बहुविवाह करते कर्मधा। तन्त्रोक्त मनःकल्पित वस्तु द्वारा देवताको रहे। बहु विवाह हो इस प्रथाका मूल कारण देख अर्चना, जो पूजा तन्त्रमें कही और मनमें मानी हुयी. पड़ता है। सर्वत्र मुसलमान बादशाह बहुतसे खोजे चौजसे देवताको हो। रखते थे। उन्हें देख अन्तको हिन्दू राजावोंमें भी अन्तःपूजाके समय कुण्डलिनी शक्तिको मुलाधार इसका चलन हुवा। आजकल अनेक अफ्रीकासे खोजे पद्मसे हृदयरूप सूर्यमण्डलमें ला कणिका अन्तर्गत खरीद लाते हैं। चन्द्रवाले सुधासे मूलमन्त्र सींचे। पीछे. विषयरूप अन्तःपुरजन (सपु०) प्रासादकी स्त्री, जो औरत पुष्पसे पूजा की जाती है। अमाया, अनहङ्कार, शाही महल में रहें। अराग (अनुरागका अभाव), अमद (मत्तताका अन्तःपुरप्रचार (सं० पु.) स्त्रीके एहको किंवदन्ती, अभाव), अमोह, अदम्भ, अद्देष, अक्षोभ, अमात्सर्य और जनानख़ानेको अफ़वाह । अलोभ-यह दश प्रकारके विषय-पुष्य अन्तःपूजामें अन्तःपुररक्षक-अन्तःपुराध्यक्ष देखो। सिवा इसके अहिंसा, इन्द्रियनिग्रह, अन्तःपुरवर्तिन्- अन्तःपुराध्यक्ष देखो। दया, क्षमा एवज्ञान-इन दूसरे पांच पुष्पोंको बात. अन्तःपुरसहाय (सं० पु.) अन्तःपुरे सहायः, ७-तत् । भी लिखी है। इसमें परमात्माका एकल चिन्तारूप राजाके अन्तःपुरका सहचर, विदूषक, कञ्चुको प्रभृति, ही न्यास निकालेंगे। ऐसा सोचना चाहिये, कि जनानखानेमें साथ घूमनेवाला, मसखुरा, खोजा 'सोह'-इस मन्त्रके अक्षर कुण्डलिनीमें पिरोये हैं। वगैरह। ऐसे ही परम अमृतपूर्ण ब्रह्मरन्धस्थ सहसूदल पद्ममें, अन्तःपुराध्यक्ष (सं० पु.) अन्तःपुरस्य अध्यक्षः, सिवा पूजा और होमके, उन्हीं पिरोये हुये अक्षरीको ६-तत्। अन्तःपुरका तत्त्वावधायक, जनानखानेका आत्मीय रूपसे देखाना होगा। दारोगा, जो कर्मकारी वृद्ध, सत्कुलोद्भव, समर्थ रहे मानसिक होम इसतरह होता है,-आमाको और पिढ-पितामहके क्रमसे काम करते आया हो अपरिमित समझ आत्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा और विहित हैं।