पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५२८

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अन्तःप्रज-अन्तःसत्त्वा ५२१ ५ असली सबब। ज्ञानात्मा स्वरूप चार कोण-आनन्दमेखलायुक्त योनि-। अन्त:सन (सं० त्रि०) अन्तःमध्यवर्तिनी अप्रकाश्या भूषित चैतन्यकुण्ड नाभिमें देख उसके बीचवालो - इति यावत् सज्ञा चैतन्यं यस्य बहुव्री० । वृक्ष, लता, ज्ञानाग्निमें होम लगाये। पहले मूलमन्त्र 'यो ढण, गुल्मादि, दरख त, बेल, घास, झाड़ी वगैरह। चैतन्यरूपानौ विषयहविषा मनसालुवा ज्ञानप्रदीपिते नित्यमक्षवृत्ताजु होम्यह हमारे ऋषि-मुनिके मतसे, वृक्षादि पूर्वजन्मके पापसे स्वाहा'-पढ़ आहुति देना चाहिये। जड़ित पड़ गय; किन्तु भीतर सुख-दुःख अनुभव कर अन्तःपेय (सं० लो०) चुसकी, चूंट। सकते हैं। मनुस'हिता १ अध्याय १४६-१४६ श्लोक देखो। अन्तःप्रकृति (सं० स्त्री०) राज्यान्तर्वर्तिनी प्रकृतिः अन्तःसत्त्वा (सं० स्त्री०) अन्तरभ्यन्तरे गर्भ इति राज्याङ्गम् । १ राजाको प्रकृति, बादशाहको कुदरत । यावत् सत्त्वं प्राणी यस्याः, ६-बहुव्री०। १ अपने गर्भमें अमात्य, सुहृत्, कोश (धनागार), राष्ट्र ( राज्य ), प्राणी अर्थात् सन्तान रखनेवाली स्त्री, गर्भवती, हामिला दुर्ग (किला ), बल (फौज ),-यह छः राजाको औरत, जिस औरतके पेटमें सन्तान हो। (त्रि.) प्रकृति हैं। अन्त: शरीरमध्ये सत्त्वं गुणः पिशाचादि बलं आत्मा अन्तः सर्वभूतान्तर्व्यापिनी प्रकृति स्वभावः परमात्मा व्यवसायः अस्त्र धनं प्राणा वा यस्य, बहुव्री। वा। अन्तर्जगन्मध्यस्था प्रकृतिः पञ्चभूतानि प्रधानं २ द्रव्यवान्, जिसमें कोई चीज़ रहे। ३ धैर्यगाम्भीर्यादि मूलकारणं वा। २ क्षिति, अप, तेजः, मरुत् और गुणयुक्त, जिसमें सब और सञ्जीदगी मौजूद हो। व्योम-यह पञ्चभूत। ३ प्रधान, बड़ा। ४ मूलकारण, ४ खेतकृष्णवर्णविशिष्ट, सफेद काले रङ्गवाला। पिशाचादियुक्त, भूतोंसे भरा हुवा । ६ बाणिज्ययुक्त, अन्तःप्रज्ञ (सं० त्रि.) भीतरी विद्वान्, अपना ज्ञान रोजगारौ। ७ निश्चित, यकीनवाला। ८ अस्त्रयुक्ता, रखनेवाला, अन्दरूनी फ.होम, जो अपने आपको हथियारबन्द। ८ धनशाली, अमौर । १० प्राणयुक्ता पहुचानता हो। जीता-जागता। अन्तःप्रतिष्ठान (स. क्लो०) भौतरका अवस्थान, । *। सन्तान उत्पन्न होनेके लिये गर्भ में तीन प्रधान अन्दरूनी रहायश। स्थान रहते हैं। यथा, जरायु ( uterus), अण्ड- अन्तःप्रतिष्ठित (सं० त्रि०) भीतर अवस्थित, अन्दर प्रणाली . ( fallopian tubes) और अण्डाधार रहनेवाला। (ovaries)। सिवा इसके योनि भी. जननेन्द्रियके अन्तःप्रविष्ट (सं० त्रि०) अन्तः मध्ये प्रविष्टम् । अन्तः मध्य गिनी जाती है। करणके मध्य प्रविष्ट, हृदयगत, अभ्यन्तर्गत, कलेजेके जरायु, पेड़ में वस्तिंगह्वरके भीतर होता है। इसका अन्दर घुसा हुवा, जो दिलमें दाखिल हो गया हो। आकार ज्यादातर अमरूद-जसा देखते ; अग्रभागसे अन्तःशर (सं० पु०) भौतरी वाण या रोग, अन्दरूनी क्रमशः पश्चाद् दिक्को कुछ चपटा पाते हैं। गर्भ- तीर या आजार। सञ्चार होनेसे इस जरायुमें हो सन्तान हृष्टपुष्ट और अन्तःशरीर (सलो) अन्तः स्थूलदेहमध्यस्थ परिपक्क पड़ता है। इसी कारण इसे गर्भाशय भी शरीरम्, कर्मधा । स्थल शरीरका मध्यवर्ती वेदान्त कहते हैं। इसका दूसरा नाम कलल है। अण्ण देखो। प्रसिद्ध सूक्ष्म शरीर। मनुष्यको अण्डप्रणाली दो होती, जरायुसे पेडूके अन्तःशल्य (सं० लो०) अन्तःकरणस्य शल्यमिव । दोनो पाखं गालीकी ओर चलौ आयों ; इन अन्तःकरणके पक्षमें शल्य अर्थात् शेलको तरह कष्ट अण्डप्रणालीसे अनेक क्षुद्र-क्षुद्र शाखा फूटी, जरायुके दायक, जो चीज. दिलपर सांग-जै सो जाकर चुभे । पास यह परदेको तरह खालसे ढंको हैं। अण्ड- अन्त:शिलेष, अन्तःशिलेषण (वै० वि०) आन्तरिक प्रणालीसे दो काम निकलेंगे; एक,-अण्डप्रणालीमें साहाय्य, अन्दरूनी मदद। अण्ड पक जानेपर. इसी राह जरायुके मध्य आ 131