पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५३

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अक्षरलिपि भांति पढ़ा हुआ व्यक्ति केवल एकबार पाठ कर दो बड़े ग्रन्थ कण्ठस्थ कर सकता है। इसके बाद उन्होंने ब्राह्मणोंको लक्ष्य कर बताया है, कि वह अपने चारो वेदोंपर अतिशय भक्तिवद्धा रखते, जिन चारो वेदोंमें कोई एक लाख श्लोक हैं। चारो वेद कागज़ पर नहीं लिखना पड़ते, दूसरों के मुखसे सुन कर हौ मुखस्थ कर लिये जाते हैं। प्रत्येक ही वंशमें ऐसे कितने ही ब्राह्मण हैं, जो वह लाख वेदमन्त्र आवृत्ति कर सकते हैं। मैंने अपनी आंखों ऐसे लोग देखे हैं।' इत्सिङ्गको विव- रणी प्रमाणको भांति उद्धृत कर अध्यापक मोक्षमूलर कहना चाहते हैं, कि उस प्राचीन वैदिकयुगमें शिक्षा की रीति अति सुप्रणालीबद्ध होते भौ पुस्तक, ग्रन्थ, चर्म, पत्र, कलम, लिपि या स्याहौका कोई उल्लेख नहीं मिलता। भारतवासी इनका नामतक न जानते थे। उनका साहित्य विशाल था सही; किन्तु वह समुदाय बड़े यत्नसे मुख-मुख रक्षित होता चला आता था ।* फिर किस समय भारतमें अक्षरलिपिको उत्पत्ति हुई ? इसके उत्तर में मोक्षमूलर बताते हैं, कि आज- तक भारतमें जितनी लिपि आविष्कृत हुई हैं, उनमें अशोकलिपि सबसे पुरानी है। अशोकलिपि दो प्रकारको पाई गई है-एक वह जो दाहनो ओरसे बाई ओरको लिखो जाती और स्पष्टतः अरमीय (Arameuan) या सेमेटिक अक्षरलिपिसे उत्पन्न हुई है ; दूसरो लिपि बांई ओरसे दाहनी ओरको चलती है। यह दूसरी लिपि भारतीय भाषाके प्रयोजनानुसार यथानियम सेमेटिक अक्षरलिपिसे ही परिपुष्ट हुई है। भारतके नाना प्रदेशोंके लोगों और बौद्धाचार्यों के हाथ भारतसे बाहर कितने ही दूर देशों में जो लिपि छूट पड़ी हैं, उनके समुदायका मूल पूर्वोक्त दूसरे प्रकारको अक्षरलिपि ही है। सिवा इसके यह भी असम्भव नहीं है, कि अतिप्राचीन कालमें सेमेटिक लिपिसे साफ तौरपर तामिल अक्षरलिपि ली गई थी। इस तरह अध्यापक मोक्षभूलर जो युक्ति द्वारा और अक्षरविन्यास देख हमारी अक्षरलिपिको विदेशीय लिपिसे उत्पन्न हुई बताना चाहते, वह कोई नई बात नहीं है। उनसे बहुत पहले सन् १८०६ ईमें सर विलियम जोन्स भारतीय लिपिके सेमेटिक उद्भवका आभास दे गये हैं। इसके बाद वप्, लेप्सिअस्, बैवेर, बेन्फो, होइट्नी, पट, वेष्टरगार्ड, नर्स, लेनरमण्ट प्रभृति पाश्चात्य पण्डित भी अशोकलिपिके आकारपर निर्भर कर भारतीय लिपिका मूल सेमेटिक लिपि ही बता गये हैं। इन लोगोंके बीच अध्यापक वैवेर साहबके विशेष मतानुसार पुरानी फिनिक लिपि और डिकके मतानुसार पुरानी दक्षिण सेमेटिक और असोरीय लिपिसे भारतीय लिपि निकली है। टेलर प्रभृति कोई-कोई पाश्चात्य पण्डितोंके मतसे भारतीय लिपि दक्षिण-अरबकी किसी सेवौय (Sabian) लिपिसे उद्भूत हुई है ; किन्तु आजतक इसके समान कोई पुरानो सेवीय लिपि आविष्कृत न होनेसे अन्तमें उन्होंने यह बात भी कहो है, कि भारतीय लिपिका आदि निदर्शन अोमन्, हाड्राम, अरमा, नेवा या दूसरे किसी अज्ञात राज्यसे आवि- ष्कृत हो सकता है। इधर अध्यापक डव सन, टमस, कनिहम प्रभृति पुरातत्त्वविदोंके मतसे भारत अपनी वर्णमालाके लिये किसी देशका ऋणो नहीं है। डव्सनने साफ़-साफ़ लिख दिया है इसमें सन्दह करनेका कोई कारण नहीं, कि भारतवासियोंने आप ही अक्षरोंका उद्भावन किया था। भाषातत्त्वके सूक्ष्मातिसूक्ष्म विषयमें हिन्दू सभ्य-जगत्के सबसे बड़े पण्डित थे और वह शब्दशास्त्रका जो अपूर्व उत्कर्ष साधन कर गये और स्वर-तानका जो सूक्ष्म पार्थक्य समझ सके, उससे अक्षरोंका उद्भावन एकान्त आवश्यक हो गया था। इसे छोड़ उन्होंने अङ्गशास्त्रके चिह्नगठनमें जो असाधारण प्रतिभा दिखाई थी. वह भौ साधारणतः लोगोंमें नहीं मिलती। प्रत्नतत्त्ववित् कनिहमका कहना है, कि भारतवासियोंके अक्षर मिथ-देशको चित्रलिपिकी तरह एकही उपायसे स्वाधीन भावमें बनाये गये हैं। जैसे, खननयन्त्रसे अशोकलिपिका ख, यवसे अन्तःस्थ य, दांतसे द, पाणि- 1

  • Max Müller's, India, what can it teach us',

p. 207-216.