पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५४५

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५३८ अन्तर्भावना-अन्तर्माटकान्यास - अन्तर्भावना (सं० वि०) अन्तर्गता भावना चिन्ता, इधर-उधर होती रहे। अन्तर्मध्ये निविष्टं मनो यस्य । अन्तर्-भू चुरा-णिच्-यत्र । १ शरीरको चेष्टा और सुख २ समाहित चित्त, मजबूत तबीयत, जिसका दिल दुःख-प्रकाशक मुखके चिह्न द्वारा अप्रकाशित चिन्ता, पोखता रहे। जिम्मको हालत और आराम-तकलीफ़ बतानेवाले अन्तर्मल (सं० पु०) मलान्तवृक्ष, एक किस्मका मुंहके आसारसे छिपी हुयी फ़िक्र, अन्तर्गत धान, दरख्त। दिली खयाल । २ अन्तःशुद्धि, अन्दरूनी पाकीज़गी। अन्तर्महानाद (सं० पु०) शङ्ख, जिस चीज के भीतर ३ गणितशास्त्रका अङ्कविशेष, हिसाबको कोई अदद, बुलन्द आवाज. भरी हो। गुणनफलके व्यवकलनसे अङ्गशोधन, हासिल जरबके अन्तर्मुख (सं• त्रि०) अन्त: परमात्मैव मुखं प्रवेशो- फर्क से अददको इसलाह। पायो यस्य । परमात्माका ही लक्ष्य लगाकर बैठा अन्तर्भावित (सं० त्रि०) अन्तर्मधी भावितं प्रवेशितं हुवा, जो ईश्वरपर ही ख़याल जमाकर बैठा हो। अन्तर्-भू णिच् क्त, ७ तत्। १ मधाप्रवेशित, बीच में (क्ली०) अन्तर्मध्यस्थले मुखं सूचौवव्रणनिःसारको घुसा हुवा, जिसका खयाल दिलमें लड़ाया गया ऽग्रभागो यस्य। २ व्रणविसावणास्त्रविशेष, व्रणादि हो। भू चुरा०-णिच् त। २ चिन्तित, फिक्रमन्द। काटनेका सूई-जैसा तीक्ष्ण अस्त्र, जिस पैने औज़ारसे ३ अन्तःशद्ध, सच्चे दिलवाला। फोड़ा वगैरह चीरते हैं। (पु०-स्त्री० ) अन्तर्देहमधे। अन्तर्भाव्य (सं० ली.) अन्तर्-भू भावे ण्यत्। मुखं मस्तकं यस्य, बहुव्रौ । ३ कच्छप, कछुवा । १ अवश्यके मध्यका होना, ज़रूरके बीचको हस्ती। (अव्य.) मुखस्य अन्तर्मधा, अव्ययी। ४ मुखके (वि.) अन्तर्-भू-णिच्-यत् । २ मध्यमें प्रवेश भौतर, दहनके दरमियान, मुंहमें। कराने योग्य, जो बीचमें घुसेड़ने काबिल हो। (अव्य०) | अन्तर्मुखी ( स० स्त्री०) योनिरोगविशेष । इसका अन्तर्-भू-णिच्-क्त ल्यप् । ३ मध्यमें प्रवेश करा, लक्षण यह है,- बीचमें घुसेड़ कर। 'तमन्तर्भाव्यैव नियोगधीः।' (स्मार्त) "व्यवायमतिताया भजन्तवास्तव पीड़ितः । अन्तर्भूत (सं० त्रि.). अन्तर्मध्ये भूतम् । मध्यस्थित वायुर्मिथ्यास्थिताङ्गाया योनिस्रोतसि सस्थितः ॥ अन्तर्गत, बीच में ठहरा हुवा, जो किसौके अन्दर वक्रयत्यानन' योन्याः सास्थिमांसानिलातिभिः । आया हो। भृशातिमैथ नासक्ता योनिरबमुखी मता॥" (चरक चि० ) "कालभावाध्वदेशानामन्तर्भूतक्रियान्तरः। अन्तर्माका (सं० स्त्री०) अन्तर्मध्यगताः षट्चक्रस्था सव्वरकमकयो गे कर्मत्वमुपजायते ॥” (भत हरि-वाक्यपदीय ) माढका अकारादि पञ्चाशवर्णाः, कर्मधा। तन्त्रोक्त अन्तभूमि (सं. स्त्री०) भूमिका अन्तर्गत भाग, षट्चक्रस्थ अकारादि पचास वर्ण, जो पचास हर्फ जमीनका अन्दरूनी हिस्सा । तन्त्रके कथनानुसार षट्चक्रमें रहते हैं। अन्तभौम (संत्रि०) भूमिके अन्तर्गत, जो जमौन- अन्तर्माकान्यास (सं० पु०) अन्तःस्थानां अकारादि के अन्दर हो, भूमिके भीतरका, जमीनके अन्दरवाला। पञ्चाशम्माटकावर्णानां न्यासः तत्तवर्णोच्चारणपूर्वक अन्तर्मदावस्थ (सं० पु०) अन्तर्देहमध्ये मदावस्था दाना तत्तनिवासस्थानादुपरि त्वचि अङ्गलिक्षेपः, ६-तत् । वस्था यस्य, बहुव्री । शुण्डादि द्वारा मद न गिराने शरीरमधास्थ मालकावर्णका नाम उच्चारण और वाला हाथी, जिस हाथोके भीतर मद भरा हो। स्मरण कर उनके स्थानपर अङ्गुलिका. रखना । इसका "अन्त दावस्य इव दिपेन्द्रः।" (रघु २०) विवरण ज्ञानार्णवमें ऐसे लिखा, किस स्थलमें कौन अन्तर्मनस् . . ( स० वि०) अन्त: बहिरप्रकाशतया वर्णके नामोच्चारणपूर्वक अङ्गुलि रखना पड़तौ है,- अन्तहितमेव मनो यस्य बहुव्री। १ व्याकुलचित्त, "यष्टपताम्ब ने कण्ठे स्वरान् षोड़शविन्यसेत् । दुर्मना, विमना, परेशांदिल, बेदिल, जिसकी तबीयत हादशच्छदहत्पने कादौन् बादश विन्यसेत् ॥