पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५५

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अक्षरलिपि ५३ आर्यसभ्यताका सुवीज अङ्कुरित हुआ। जिस युगमें वर्णमालाओं और अक्षरोंको उत्पत्ति हुई थी। बिना हिमालयने भूगर्भसे मस्तक ऊपर न उठाया था, जिस नाना वर्ण या अक्षर-समाधान सब वैदिक शब्द समुच्चा- युगमें समुच्च पाल्प-शैल बहुत ऊंचे पर्चतरूपसे न रित होनेकौ सम्भावना नहीं। निकला था, और जिस युगमें वर्तमान एशिया और हिमप्रलयसे पहले जब वैदिक सभ्यता सुप्रतिष्ठित अफ्रीका महादेश छोटे-छोटे द्वीपोंके आधार थे, उसी हुई थी,तब यह बात भी साधारण रीतिसे स्वीकार की दूर-अतीत युगमें, हमें भूतत्त्वविद्या बताती है, कि जाती है, कि वैदिक अक्षरमालाका भी विकाश हुआ पश्चिममें उत्तर-स्कन्दनाभसे पूर्व में उत्तर-अमेरिका- था । प्रातिशाख्य था प्रतिशाखाकी वैदिक पठन- तक आर्य-जातिको 'प्रत्नौकस्' या आदि जन्मभूमि पाठन विधिके अनुसार प्रति मन्त्र हो 'स्वरतः' और फैल गई थी। आज जो स्थान चिरतुषारमय, सुखी 'वर्णतः' पाठ करनेका नियम है। इसलिये यह बात मनुष्यको कष्ट देनेवाला, असह्य और उपादेय फलमूल ठीक नहीं, कि आदि वैदिक मन्त्र केवल खरानुसृत वृक्षादि उत्पादनके सम्पूर्ण अनुपयुक्त समझा जाता है, ही थे ; सब लोगोंको मालूम है, कि वह अक्षरविशिष्ट वह उत्तर महादेश ही एक समय आर्यदेवोंका नन्दन भी थे। कोई ऐसा प्रबल प्रमाण अवश्य नहीं है, जिस- कानन गिना जाता था। पर हम ज़ोर देकर कह सकें, कि हिमप्रलयस पहले यह २१००० वर्षसे भी पहलेकी बात है, कि जबतक सुमेरु-निवासी वैदिक देवर्षि जोमन्त्र पढ़ते थे, वह अवि- हिमप्रलय और बरफ़ गिरनेसे आर्यभूमि सुमेरुका कृत आकारसे ही आयावर्त आ पहुंचे और इस (Arctic regions) प्राकृतिक विपर्यय न हुआ था, तब समय जो वैदिक मन्त्र पाए जाते हैं, वह सभी हिम- तक उस अतौत युगमें एशिया और युरोपका उत्तर प्रलयसे पहले विद्यमान थे। किन्तु यह तो असम्भव शीतल-ग्रीष्म और उष्ण-शीत ऋतुसे मण्डित रहा, नहीं, कि हिमप्रलयकै समय विषम तुषार-समुद्रके तर- यानी उस समय वहां सदा वसन्त बना रहता और ङ्गाघातसे जो आर्य बच गये थे, उन्हें श्रुतिविभ्रम मेरु सकल उपादेय फल-मूलका उद्यान जैसा देख न हुआ। उनके वंशधरोंने मेरु (Pamir) और पड़ता था। उसी समयसे वैदिक आर्यों में सभ्यताका समुच्च हिमालय प्रदेशमें रहते समय उनके मुहसे हो सोत बह रहा था, और उसी समयसे वह यागयज्ञ जो आदिवैदिक मन्त्र सुने थे, वही श्रुति कहे जाकर और ज्योतिषक तत्त्व जानते रहे थे। गण्य हुए हैं। यह बात नहीं, कि देश, काल, पात्र और नाना सूत्रोंके सम्पादनकल्पसे ऋषियोंके हृदय में जलवायुका अवस्था-भेद बदलते समय उस श्रुतिके उच्चा- ज्योतिषको कठिन समस्या उदित हुई थी। वेद देखो । रणमें कुछ-कुछ अलगाव न हो गया था और स्थान-वि- बिना अङ्कविद्या जाने उस समस्याका पूरा होना शेषमें आर्यसन्तानोंने उन आदि मन्त्रीको व्यवहारो- सम्भवपर न था! विना अङ्गपात कठिन गणना कैसे पयोगी न बना लिया था। की जाती? यदि किसी प्रकारका चिह्न या अक्षर-वि वेदके मन्त्रपरिचायक ब्राह्मणग्रन्थमें लिखा है- न्यास न हो, तो अङ्कपात कैसे किया जाये इसलिये “पथ्यास्वस्तिरुदीची दिशं प्राजानात् । वाग् वै पथ्या स्वस्तिः। तस्माटु- यह बात मानना ही पड़ेगी, कि उस बहुत पुराने युग दीच्यां दिशि प्रज्ञाततरा वागुद्यते । उदच उ एव यन्ति बाचं शिक्षितुम् । यो वा से ही वर्ण या अक्षर विशेषको उत्पत्ति हुई है। किन्तु तत आगच्छति तस्य वा शुच पन्ने इति स्याह । एषा हि वाचो दिक् प्रज्ञाता।" यह जाननेका कोई उपाय नहीं, कि कैसी लिपिके (शायावनब्राह्मण ७१६) साहाय्यसे वह अक्षर या अङ्कपात बनाये गये थे। फिर अर्थात् उत्तरदिक्को पथ्यावस्ति समझते हैं। भी, यह वैदिक मन्त्रोंको आलोचना करनेसे पथ्यास्वस्ति ही वाक् है । उत्तरदिक्में ही वाक्य प्रज्ञात मालूम होता है, कि उस आदि वैदिक युगमें ही नाना बताया जाकर कौर्तित हुआ करता है। लोग भी उत्तर-

  • B. G, Tilaka's Arctic home in the Vedas, p. 26. दिक्में ही भाषा सीखने जाते हैं। जो उस दिकसे

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