पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५५३

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अन्तोष्टि - - सब देशोंके आदमी असभ्य अवस्थामें भूतसे भय खाते हुए चलते थे ; और अब भी चलते हैं। इसके साथ साथ क्रमसे दो एक शान्ति-स्वस्तायनका प्रारम्भ हो गया, जिसमें कहीं मृत्यु के बाद भूतका उपद्रव न उठे। जिसे प्यार करते, आठों पहर उसे आंखके सामने देखते हैं। मनमें देखते, हृदयमें देखते और सोनेपर स्वप्नमें भी देखते ; विदेश जानेपर दो दिनमें न हो तो दो वर्षमें एकबार देख सकेंगे, इसी भरोसेपर आशा लगाये रहते हैं। कल जो था, आज वह नहीं रहा! मरनेसे जन्मभरके लिये सब सम्बन्ध छूट गया ; यह आशा भी जाती रही, कि फिर भी देख सकेंगे। इसीसे अन्तरष्टिक्रियाके साथ साथ अनेक मनुष्य स्रह और भक्तिके लिये भी कितने हो काम करते हैं। इसके सिवा लोगोंके मत और विश्वासपर भी अन्तष्टिक्रियाके अङ्ग प्रत्यङ्ग नाना प्रकारसे बढ़ गये। इस समय सब जातियों में अन्तेष्टिक्रियाको प्रथा एक तरहको नहीं पाते। पहले जैसी थी, अब वैसी नहीं रही, दिन दिन परिवर्तन होते चला जाता है। तो भी अच्छी तरह विचार कर देखनेसे आदिम अवस्थाका कोई न कोई आभास अब भी सब जातियों में मिलेगा। उस समय कालमक जातिके आदमियोंका कोई निर्दिष्ट वासस्थान न था। वह सब पशु पालते और जगह जगह झोपड़े बनाकर रहते थे। एक स्थानका तृणं अन्नादि चुक जानेपर दूसरी जगह चले जाते। उनकी अन्त्येष्टिक्रिया में कोई आडम्बर न रहा। किसीको मृत्यु हो जानेपर वह सब लाशको उसी जगह छोड़ कुछ दूर हट भोपड़ा बनाकर रहने लगते । प्राचीनकालमें इथिोपियाके आदमी लाशको जलमें डुबा देते थे। युक्तप्रदेशमें अब भी यह रीति जारी है। इतर जातिको लाश गलेसे घड़ा और रस्सी बांधकर नदीमें डुबा देते हैं। बम्बईको पारसी जाति सभ्य और सुशिक्षित है। भारतमें वैसी धनी जाति दूसरौ नहीं। किन्तु उन लोगों में अन्तष्टिक्रिया मानव-जातिवाली प्रथमा- वस्थाको तरह अति सहज उपायसे की जाती है “दख्मा" अर्थात् शान्तिमन्दिर नामक उनके गाड़े जानेवाले गढ़े पर लोहेका जाल लगा रहेगा। पारसी लोग उसीपर लाशको सुला जाते हैं। धूप और सरदौसे धीरे-धीरे लाश गलने लगती, कौवे और ग्राद्ध मांसको खा जाते हैं। अन्तमें हड्डियां गड्ढे में नीचे गिर पड़ेंगी। हड्डियोंको इकट्ठाकर गाड़ देते हैं। साइवेरियाके दक्षिण-पूर्व कमस्कटका उपद्दीप है। इस उपहोपमें कामस्काडेल नाम्नी एक असभ्य जाति रहती है। उस जातिके लोग लाशको न तो जलाते और न गाड़ते, बल्कि कुत्तोंको खिला देते हैं। लाश खिलानेके लिये घर-घर कुत्ते पालेंगे। कमस्काडेलोंको विश्वास है, कि लाश कुत्ते को खिला देनेसे प्रेतात्मा परलोकमें जाकर सुखसे रहता है उन लोगोंके कुत्तोंमें एक विचित्र गुण मिलेगा। वे भंक नहीं सकते, भूकना एकदम जानते ही नहीं; परन्तु मनुष्यों के बहुत काम आते हैं। यह विश्वास अनेक जातियों में है, कि कुत्ता पर- लोकमें सहाय होता है। गारो जाति मृतदेह संस्कारके समय कुत्ता वलि देगी। चित्मा पर्वत गारो लोगोंको प्रेतपुरी है। कुत्ता वलि देनेसे उसकी आत्मा मृत व्यक्तिको राह दिखाकर प्रेतलोकमें ले जाती है। इसीसे वह संस्कारके समय कुत्तेको वलि देते हैं। ग्रोनलेण्डवासियोंमें भी कुछ ऐसी ही रीति प्रचलित है। छोटे लड़ केको मृत्य होनेपर प्रेत- लोकको राह दिखानेके लिये लाशके साथ कुत्ता गाड़ देते हैं। ऐसा विश्वास केवल असभ्य लोग ही नहीं करते ; कि कुत्ता प्रेतलोकका पथ दिखा सकता है। प्राचीन आर्यों को भी ठीक ऐसी ही धारणा थी। अन्तेष्टि- क्रियाके समय आर्य, यमके दोनो कुत्तोंको प्रेतात्माके साथ रखनेके लिये ईखरसे प्रार्थना करते थे। 1 “यो ते श्वानो यम रचितारौ चतुरची पथिरक्षी नृचक्षसा । ताभ्यां राजन् परिदा नं स्वस्ति चाख्या अनमौवञ्च धेहि।" ( तैत्तिरीय-भारण्यक दा)