पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५५७

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अन्त्येष्टि ५५१ मृतदेह प्रस्तुत हो जानेसे पुरोहित उसे सन्दूकके । वस्त्र भी ढांक देता था।* पुत्र न होनेसे सहोदर भीतर रख कब्रमें गाड़ देते। या किसी निकट जातिको यह काम करना इथिओपिया, ईरान, केनारी हीप, आसीरिया, पड़ता था। अमेरिका प्रभृति अनेक देशोंमें मृतदेहके रक्षा आजकल ब्राह्मणका मुर्दा शूद्र नहीं छू सकता। करनेकौ प्रथा थी। किन्तु मिश्थ-जैसा आडम्बर दूसरी मनु प्रभृति शास्त्रकार उसका निषेध कर गये हैं। किसी भी जगह देख नहीं पड़ा। ईरानके लोग केवल "न विप्र खेषु तिष्ठत्सु मृत शूद्रेण नाययेत् । मोमसे मृतदेहको बचाते रहे। आसीरियाके लोग अस्वळ ह्याहुति: सास्या छ द्रसस्पर्शदूषिता ॥" (मनु ५।१०४) मधुसे यही काम निकालते, जिसमें मृतदेह सड़ता न ब्राह्मणादिको स्वजाति मिलते हुए शूद्रसे मृतदेह था। अलेक्जन्दरके मरनेपर उनका शरीर मधु और न उठवाना चाहिये। कारण, शूद्रके छु जानेपर उसी मोमदारा सड़नेसे बचाया गया था। इस समय भी आहुति द्वारा वह स्वर्ग नहीं पा सकता। अधिक दूर मृतदेह ले जानेपर नानाप्रकारके मसा विष्णु, यम प्रभृति अन्यान्य स्मृतिकारोंने भी ऐसा लोंसे भरा जाता है। आन्दामान होपमें शेरअलोके ही निषेध लिखा है। लार्ड मेयरको मार डालनेपर उनका शरीर अधिक किन्तु पहले यह नियम न था। ब्राह्मण मरनेसे दिन बचानेके लिये चिकित्सकोंने राईके तेल, मोम, घरके नौकर मृतदेहको श्मशान ले जाते थे। किन्तु सुरा, कपूर, सिनेवार, शोरा प्रभृति अनेक द्रव्यों में मनुष्य हारा शव ले जानेमें असुविधा पड़नेसे डुबाकर रखा था। बैलगाड़ीपर मृतदेह ढोनेको प्रथा थी। वैदिक समय भारतवर्ष में ब्राह्मणको जिस प्रथासे "इमौ युनमि ते वह्नो असुनौख य बोढ़वे । अन्तष्टिक्रिया होती थी, आजकल उसका कोई आभ्या यमस्य सादनं मुकताञ्चापि गच्छतात् ।” आभास नहीं मिलता। वैदिक समयमें गङ्गायात्रा न ( तैत्तिरीय-आरण्यक ६।१४) थी, कोई अपना यह छोड़ स्थानान्तरको मरने न अर्थात् आपको ले जानेके लिये हम इन दोनों जाता था। परिवार और आत्मीयवर्गसे वेष्टित हो सब बैलोको गाडीमें जीतते हैं। यह आपको यमके ही अपने-अपने घरमें प्राण छोड़ते रहे। मृत्यु के प्रालय और पुण्यात्माओंके स्थानपर पहुंचा देंगे। बाद हौ प्रथम होम किया जाता था। बौधायनने अग्नि आपके मकल पुण्यकर्म जानते हैं, जो आपको व्यवस्था दी है, कि मृतव्यक्ति का दक्षिण हस्त छकर पार लगायेंगे। गार्हपत्य अग्नि में चार बार आहुति डालना चाहिये। श्मशान जाते समय पथमें तीन बार मृतदेह किन्तु भरद्वाज आहवनीय अग्निमें होम करना बताते उतारना पड़ता था। शवको नीचे रख सहगामी हैं। इस विषयपर आश्वलायनीय-सूत्रमें लिखा है, कि तीन मन्त्र पढ़ते थे । इन मन्त्रों को देख स्पष्ट ही समझ पिटमधका प्रथम होम उस समय न करनेसे भी काम पड़ता हैं, कि आर्य प्रेतलोकका पथ पहचाननेके चल जायेगा। होम साङ्ग हो चुकनेपर एहसे सदाके निमित्त अनेक कष्ट उठाते, पथका सहचर खोजते लियेविदा करनेको व्यवस्था है-बन्धुबान्धव यजडुमुर थे। काष्ठसे एक चारपायो बनाते थे। चारपायौ बना 'पूषा खे तश्यावयतु अधिदाननष्ट पशु बनस्य गोपाः । उसपर कृष्णसारचर्म बिछाया जाता। चर्मक सं त्वं तेभ्यः परिददात् पिलभ्योऽग्निदेवेभ्यः । मुविदव भ्यः।" लोमका. पृष्ठ नौचेको ओर रखते थे। आत्मीय- ( तैत्तिरीय-भारण्यक १५) वजन शवका मत्था दक्षिणको ओर रख उसे चार- "उद' त्वा वस्त्र प्रथम वागन्। अपैतदू यदि हाविभः पुरा।" पायोपर चित सोला देते। मृतव्यक्तिका पुत्र शवको ( तैत्तिरीय-आरण्यक हार) अर्थात् यह वस्त्र आपके पास प्रथम पाया है। • कोई नया कपड़ा पहनाता और ऊपरसे दूसरा आपने पहले नो वस्त्र पहना था, उसे भव कीड़ दीजिये। .