पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५५८

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५५२ अन्ताष्टि नापर:: अर्थात् 'पूषा पथको उत्तम रूपसे पहचानते हैं, आपको ले जानेके लिये उनके सुशिक्षित शान्त पशु विद्यमान हैं। वह भुवनके रक्षक हैं; वह आपको यहांसे पिटलोक ले जायगे।' हिन्दुस्थानमें शव उतारनेकी प्रथा आज भी वर्तमान है। किन्तु बङ्गालमें इसका चलन नहीं, जहां इससे सब हो भय खाते हैं। लोगोंको विश्वास है, कि पथपर मुर्दा उतारनेसे ग्राममें महामारी दौड़ेगी। इसलिये दैवात् किसौके मुर्दा उतारने या मृतदेह गिर पड़नेसे एहस्थ बार-बार सात घोंघे रखते और सात घड़े जल छोड़ते थे। आर्य मृतदेहके साथ श्मशानमें एक गाय ले जाते रहे। इस गायको अनुस्तरणी या राजगवी कहते थे। बुड्डी गाय मिलनेसे काम बनता। उसके न मिलनेसे, जिस गायके लोम, चक्षु या खुर काले होते, उससे भी मतलब निकल जाता था। गायके अभाव- में कोई-कोई कृष्णवण तरुण छागल भी ले "पुरुषस सयावर्ष पदधानि मृञ्महै। यथा नो अव पुरा जरस आयति । ( तैत्तिरीय-भारण्यक ६॥ १॥२०१०) पुरुषस्य सपावरि वि ते प्राणमसिस्रस। शरोरण महोमिहि स्वधयेहि पितणुप प्रजयाऽस्मानिहावह। (६।१२।११) मैव माता प्रियेऽहं देवी सती पिटलीकं यदेषि। विश्ववारा नभसा संव्ययन्त्यु भौ नो लोकौ पयसाऽभ्यावहत्व ॥” (हा।२।१२) मृतव्यक्तिको सहगामिनि (राजगवि)! हमने आपके द्वारा प्रेतात्माके पापका ऐसा शोधन किया है, जिससे जरा या पूर्वका कोई अपर पाप हमारे पास पहुंच न सके। हे मृतव्यक्तिको अनुगामिनि ! हमने आपके प्राण नष्ट किये हैं। आप शरीर द्वारा भूमि और खधा द्वारा पिटलोकको प्राप्त कौजिये। इस पृथिवीमें पुत्रादि सह हमलोगोंको क्षमा करना। हे प्रिये ( राजगवि)! मनमें यह न लाना, कि तुम मारी गयो हो। कारण, आप देवी और सती हैं और द्युलोकसे पिटलोकको जाती हैं। हमें इहलोक और परलोकमें क्षीरपूर्ण बनायिये । इस समय हम छाग, मेषादि इसतरह वलि चढ़ाते, जिसमें शिर पृथक् पड़ जाता है, पैरसे मस्तक पर्यन्त चर्म समग्र नहीं उतरता। अतएव इस समय यह निश्चित करना कठिन है, कि मुसलमानोंको तरह आर्य राजगवीको हत्या करते या अन्य किसी प्रकार मारते थे। श्मशानमें पहुंच बन्धुबान्धब पहले चिताका गड्डा खोदते थे। यह बारह अङ्गल गहरा, पांच बालिश्त चौड़ा और मृतव्यक्तिके शिरको ओर सौधे हाथ फैलानेपर पैरके वृद्धाङ्गुष्ठसे हाथकी तर्जनी पर्यन्त जितनी लम्बाई रहती, गर्त भी बिलकुल उतना ही लंबा बनाया जाता। गत खुद जानेपर उसके ऊपर चिता लगाते थे। उसके बाद शवको नहला धुला चितापर सुलाते थे। पहले किसी-किसी स्थानमें एक अनोखा नियम प्रचलित था। उदरमें मलमूत्र रहता है। मनुष्य मरकर पिटलोक जायेगा। किन्तु मलमूत्र लपेट पुण्यधामको जाना ठीक नहीं, इसीसे कोई प्रांतें-पौतें बाहर निकाल उदरको तसे भर देते थे। यह प्रक्रिया समाप्त होनेपर मन्त्रपाठपूर्वक राजगवीका वध करते रहे। इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता, गाय कैसे मारी जाती थी। किन्तु व्यवस्था ऐसी थी, उसके पैरसे शिरतकका समग्र चर्म निकाल शवके ऊपर ढांक देना चाहिये। "अथैनं चर्मणा सशौर्ष बालपादन उत्तरलोम प्रोति ।" (तेत्तिरीय पारणक, सायण भाष्य) पौछ यज्ञीयपात्र शवके अङ्ग-प्रत्यङ्ग पर रखे जाते थे। मुखमें दधि एवं अग्निहोत्र हवि, नाकमें मुव, चक्षुमें सुवर्णखण्ड किंवा आज्यस्रुव, कानमें प्राशित्र- हरण, मस्तकमें तोड़कर कपालपात्र और ललाटमें एक कपाल रख देते थे। आखलायनीय-सूत्रमें अन्य प्रकारसे व्यवस्था दी गयी है। यथा-दक्षिणहस्तमें जुहु, वामहस्तमें उपभृत्, दक्षिण पार्श्वमें कुरी, वाम- भागमें अग्निहोत्र-हवि, दन्तमें अभ, मस्तकमें कपाल, वक्षःस्थलमें ध्रुव, नासिकामे सुव, नासारन्धमें पाशिवहरण, उदरमें चमस-पात्र, जननेन्द्रियमें शमी,