पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५५९

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अन्तष्टि ५५३ होती। उमसे नीचे उदुखल-मूसल, उरुसे ऊपर अरणि और पैरमें सूर्प रखना चाहिये। राजगवीका मांस भी देहके स्थान-स्थानमें रखने- का नियम था। आश्वलायनने उसको ऐसी व्यवस्था बतायी है, कि गायकी चर्बी मृतदेहके मस्तक और चक्षु में डालना चाहिये। हाथमें वृक्कक, वक्षःस्थलमें हृदय और गायका मांस एवं शरीरके अपरापर अङ्गमें अन्यान्य इन्द्रिय रखते थे। राजगवीको मारते समय कोई विघ्न पड़नेसे उसके सामनेके वाम पैरका खुर तोड़ उसे छोड़ देनेका नियम था। ऐसे स्थलपर आर्य गोमांसके अभावमें चावल किंवा यव पौस मृतदेहके स्थान-स्थानमें डालते थे। फिर गाय न मिलनेसे श्मशानमें छागल ले जानेपर उसे मारते न रहे। किसी सौधी रस्मोके सहारे छागल चिताके काष्ठसे बांध दी जाती थी। अन्तमें आगसे रस्मी जल जानेपर वह भाग खड़ी यह सकल आयोजन समाप्त होने पर मृतव्यक्तिके हाथपर ब्राह्मण होनेसे एक सुवर्णखण्ड, क्षत्रिय होनेसे धनुष और वैश्य होनेसे रत्न रखा जाता था। उसके बाद मृतपतिको विधवा नारी स्नानादि कर चितापर स्वामौके वाम पार्श्व सो रहतौ। किन्तु आखलायनने, पतिके मस्तकके पास सोनेकौ व्यवस्था बतायी है। अग्नि देनेसे पहले ऋविक्, किंवा मृतव्यक्तिका पुत्र, सहोदर अथवा अन्य कोई निकट कुटुम्बी चिताके पास पहुंच कहने लगता,- "इयं नारी पतिलोक तणाना निपद्यत उप त्वा मयं प्रेतम् । विश्व पुराणमनुपालयन्तौ तस्यै प्रजां द्रविणच ह धेहि ॥" १३ ॥ (तेत्तिरीय-पारणक ६१३३) 'हे प्रेत ! यह नारी पतिलोक जानको कामनासे तुम्हारे मृतदेहके पास पड़ी है। इसने पहले पति- परायणताका कर्तव्य कर्म सम्पन्न किया था। इसे इहलोकमें रहनेकी अनुमति बता प्रजा और धन देते रहिये।' अवशेषमें मृतव्यक्तिका कनिष्ठ सहोदर, शिष्य किंवा पुरातन भृत्य यह बात कह विधवा 'नारीको हाथ पकड़ उठा लाता था,-...... 139 "उदीष्वं नार्यभि जीवलोकमितासुमतमुपशेष एहि । हस्त नाभस्य दिधिषोतमेतत् पत्य जनित्वमभिसवभूव ॥” १४ ॥ (तैत्तिरीय-भारण्यक ६१३) 'हे नारि! आप मृतपतिके पास पड़ी हैं। आप मृतपतिके निकटसे उठ जीवित लोगोंके पास चलिये ! आपका जो पाणि पकड़ना चाहे, उसके साथ विवाह करना उचित है।' इस मन्त्रके पढ़े जानेपर विधवा नारो पतिके हाथसे सुवर्णादि निकाल चिता छोड़ देती थी। किन्तु कोई-कोई शास्त्रकार कहते हैं, कि ऋत्विक् किवा मृतव्यक्ति के पुत्र प्रभृति सुवर्ण अथवा धनुषादि उठाते रहे। ऋक् एवं यजुर्वेदमें इस मन्त्रका कुछ पाठान्तर देख पड़ता है। सायणाचार्यने भी उभयको टोकामें कुछ-कुछ भेद डाल दिया था। सिवा उसके जो पण्डित इस वेदमन्त्रका ठीक अर्थ समझ न सके, उन्होंने पाठमें भी बड़ा गड़बड़ मचाया। मुद्रित पुस्तकमें ऋग्वेदका पाठ इसतरह लिखा है,- "इमा नारीरविधवाः सुपवीरांजनेन सर्पिषा स' विशंतु। अनश्चवोऽनमौवाः सुरबा पारोहंतु जनयो योनिमग्र ।" (ऋग्वेद ११८७) कलकत्ते को एसियाटिक सोसायिटौके किसी- किसी हस्तलिखित पुस्तक में, 'संविशन्तु इसके स्थान- में 'सम्भ शन्ताम्' एवं 'सुरत्ना' इसके स्थानमें 'सुशवा' पाठान्तर विद्यमान हैं। डाकर राजा राजेन्द्रलाल मित्र महाशयने भी किसी-किसी हस्तलिखित पुस्तक- में ऐसा हो पाठान्तर देखा था। दूसरे कई-एक हस्तलिखित यजुर्वेद पुस्तकमें बिलकुल ऐसा हो पाठ मिलता है,- "इमा नारीरविधवा: सुपौराञ्जनेन सर्पिषा सम्म शन्ताम् । अनश्रवोऽनमीवाः सुशेवा भारोहन्तु जनयो योनिमये ।" पहले जो पाठ उद्धृत किया गया, उसका भाष्य अनुमरण शब्दमें देखिये। सायणाचार्यने यजुर्वेद में इस मन्त्रको इस प्रकार टीका की है, 'इमा नारी-एतास्त्रियः' यह सकल खौ; 'अवि- धवाः-वैधव्यरहिता', वैधव्यशून्या हैं। 'सुपत्नीः- शोभनपतियुक्ताः सत्या' उत्तमपतियुक्त होकर ; 'आन- नेन-अञ्जनहेतुना', अञ्जनके निमित्त ; 'सर्पिषा'- -