पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५६०

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५५४ अन्त्येष्टि हत हारा; 'सम्मृशन्तां-चक्षुषी संपृशन्तु', चक्षु लिप्त करें। 'अनश्रुवः-अश्रुरहिताः' चक्षुके जलसे शून्या ; 'अनमीवाः-रोगरहिताः', रागसे रहिता; 'सुशेवाः-सुष्छ सेवितुं योग्याः', उत्तम रूपसे सेवा करने योग्य हैं। 'जनयः-जाया', जाया ; 'अग्रे- इतःपर', इसके बाद ; 'योनि स्वस्थान', अपना स्थान 'आरोहन्तु-प्राप्नवन्तु', प्राप्त हों। रघुनन्दन भट्टाचार्यने भूलसे जो मन्त्र लिखा, उसे नीचे लिखते हैं, "इमा नारौरविधवाः सपबीराचनेन सपिषा संविशन्तु । अनखरोऽनमीरा सुरबा पारोहन्तु जलयोनिमग्ने ॥" दूसरे, यही मन्त्र सहमरण के अनुकूल होनेसे इस देशके पण्डितोंने कोलबुक साहबको जो पाठ लिख दिया, वह और भी अडुत देख पड़ता है। यथा,- "इमा नारीरविधवाः सपबौरञ्जनेन सर्पिषा संविशन्तु विभावसु । अनसरोनारीराः सुरबा आरोहन्तु जलयोनिमग्ने ॥" 'इमा नारीरविधवाः' इत्यादि मन्त्रके पढ़नेके बाद सौभाग्यवती स्त्रियां अञ्जन पार सकलके सामने घर जाती थीं। किन्तु इस विषयमें अनेक मतान्तर देख पड़ते हैं, किस समयको क्रियामें इस मन्त्रका प्रयोग पड़ता था। विहार और युक्त प्रदेश प्रभृति स्थानमें जो सकल अग्निहोत्री ब्राह्मण बसते, उनमें कोई-कोई कहते हैं, कि चितासे मृतव्यक्तिको स्त्रीके उतर जानेपर सकल सौभाग्यवती नारी उसे अपने साथ घर पहुंचाती थीं। बौधायनने लिखा है,- "स्त्रीणां अञ्चलिषु सम्पातानवनयतौमानारीति” अर्थात् स्त्रियों के हाथ सम्पात डालनेको 'इमा नारौं' इत्यादि मन्त्र पढ़ते हैं। फिर आखलायनमें आया है,-"इमा नारीरविधवाः सुपबीरित्यज्ञामा ईचेत" अर्थात् स्त्रियां जब कज्जल पारें, तब मृतव्यक्तिके पुत्रादि उनकी ओर टकटको बांध 'इमा नारौं' इत्यादि मन्त्र पढ़ेंगे। मोटी बात है, कि यह मन्त्र सहमरणका नहीं निकलता। किन्तु समय और वेदके शाखाभेदसे यह नाना प्रकार प्रयुक्त पड़ा। अनेक लोग मानते हैं, कि अशौचान्तके दिन और कर्म बाद स्त्रियां स्नान कर नब कज्जल पारतीं, तब यह मन्त्र पढ़ा जाता था। अन्त्येष्टि का समस्त आयोजन हो जाने पर चितामें अग्निकर्ता अग्नि रख देते। उन्हें इसतरह मन्त्र पढ़नो पढ़ता था। "मैनमग्ने बिदही माऽभिशोचो माऽस्य त्वच' चिक्षिपो मा शरीरम् । यदाशत करवी जातवेदोऽधेमेनं प्रहिणतात् पितृभ्यः । सूर्य ते चक्षुर्गच्छतु वातमात्मा द्याञ्च गच्छ पृथिवौच्च धर्मणा। आपो वा गच्छ यदि तव ते हितमोषधिषु प्रतितिष्ठा शरीरैः।" 'हे अग्नि ! इसे बिलकुल न जला डालियेगा। इसे कष्ट न पहुंचाना या इसकी त्वक् और शरीरको विक्षिप्त न बनाना। हे जातवेदस ! इसका शरीर पक्क पड़ जानेपर पिलोकके पास इसके आत्माको पहुंचा दीजिये। 'हे प्रेत ! तुम्हारा चक्षु सूर्यमें प्रवेश करे; वायुमें तुम्हारा आत्मा पहुंचे ; तुम अपने धर्मानुसार पृथिवी द्युलोक अथवा जल, जहां तुम्हारा हित हो, वहीं चले जावो; वहों तुम ओषधि (शस्यादि) पाकर शरीरी बनो।' इसमें सन्देह नहीं, कि आर्य प्रथम मृत- देहको मट्टी देते थे। पीछे उन्होंने देखा, कि अग्नि ही सकलके प्रधान उपास्य देवता हैं; अतएव प्राणान्तपर अग्निमें देह जलानेसे यह पञ्चभूतात्मक शरीर शीघ्र ही पञ्चभूतमें मिल सकता है। ऊपरका उद्धृत मन्त्र इसका प्रमाण होगा। अस्थि समाहित करते समय जो मन्त्र पढ़ा जाता, उससे भी स्पष्ट समझ पड़ता है, कि पञ्चभूतमें शरीर मिला देनेको आर्य विशेष यत्न करते थे। यथा,- "पृथिवीं गच्छान्तरीक्ष गच्छ दिवं गच्छ दिशो गच्छ मुवर्गच्छ । सुवर्गच दिशो गच्छ दिवं गच्छान्तरिक्ष गच्छ पृथिवी गच्छापो वा गच्छ यदि तब ते हितमोषधिषु प्रतितिष्ठा शरीरैः। (वेत्तिरीय-भारण्यक ) पृथिवीमें जाओ, अन्तरीक्षमें जाओ, द्युलोकमें जाओ, चारों ओर जाओ; जहां तुम्हारा मङ्गल हो, वहीं तुम शरीर धारणकर शस्यादिमें सुखसे रहो। मृतदेह जल जानेसे अग्निदाता चिताको उत्तर ओर तीन गत बना उनके चारो किनारे पत्थर और बालू रखते, पीछे तीनो गर्त कर्ष अयुग्म कलसीके जलसे भर दिये जाते थे। साथके जाति बन्धु उनमें ही नहाते रहे। सान हो जानेपर दहनकर्ता 1